पृष्ठ:कुरल-काव्य.pdf/२८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
[२५६
 

 

परिच्छेद ७४
देश

बढ़ी चढ़ी कृषि हो जहाँ, धार्मिक हों धनवान।
ज्ञानमूर्ति ऋषिवर्ग हो, वह ही देश महान॥१॥
धन से मोहे विश्व को, होवे स्वास्थ्यनिदान।
अन्नवृद्धि को ख्यात जो, वह ही देश महान॥२॥
सहे धैर्य से वार को, कर को पूर्ण निधान।
वीरों की जो भूमि हो, वह ही देश महान॥३॥
रोग-मरी-दुर्भिक्ष का, जहाँ न आता ध्यान।
रक्षित हो सब ओर से, वह ही देश महान॥४॥
बटा नही जो फूट से, खण्ड-खण्ड में देश।
विपलबकारी क्रूरजन, बसे नहीं जिस देश॥
और न देशद्रोह ही, होता हो कुछ भान।
जिस में ऐसी श्रेष्ठता, वह ही देश महान॥५॥ (युग्म)
नहीं लुटा जो शत्रु से, वह ही रत्न समान
लुटकर भी या भाग्यवश, रखता आय महान॥६॥
आवश्यक ज्यों देश को, कूप नदी नदनीर।
त्यों ही उसको चाहिए, पर्वत दुर्ग सवीर॥७॥
स्वास्थ्य विभव उत्तम मही, रक्षा हर्षप्रभात।
ये पाँचों प्रतिदेश को, भूषणसम हैं ख्यात॥८॥
सहज जहाँ आजीविका, वह ही उत्तम देश।
तुलना में उसकी नहीं, जुड़ते अन्य प्रदेश॥९॥
यद्यपि होवें देश में, अन्य सभी वरदान।
पर उत्तम नृपके बिना, नहीं रखें वे मान॥१०॥