१३८ म्यगायकुसुम। (पतोसरा बात में कैसे दखल दिया जाय ?" कसमकुमारी ने क्रोध के साथ कहा,-"जिस प्रथा से व्यभिचार और वेश्यावृत्ति को दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़वार हुई जा रही है, उस प्रथा को धर्म का अंग मानना,-यह कैसा विचार है ! जो देवमन्दिर धर्म के प्रधान स्थान हैं और जिन देवमन्दिरों की परिचर्या के लिये लोग अपनी कन्याओं को मोह-ममता-शन्य होकर विसर्जित कर दिया करते हैं, उनमंदिरों या उन मंदिरों के अधिष्ठाता देवताओं की दासी (देवदासी) की पदवी पाकर उन कन्याओं के साथ उन मंदिरों के पुजारी, महन्त,पण्डे .या ऐसे और भी बहुतेरे लोग, जैसा घणित, भयानक, पाशविक और पैशाचिक अत्याचार किया करते हैं, इन बातों पर कभी आपने या आपही के समान और भी धर्मप्राण महानुभावों ने कछ विचार किया है ? आपलोगों को यह बात भलीभांति जान लेनी थी कि, 'यह देवदासी प्रथा कहां से, कबसे और किस लिये निकली' !" कुसुमकुमारी की इन अद्भुत बातो को सुनकर देर तक राजा कर्णसिंह सोच मे डूबे रहे, फिर थोड़ी देर के बाद उन्होंने कुसुम- कुमारी की और उदासी से देखकर कहा.--"कुसुमकुमारी ! इस "देवदासी-प्रथा के विषय में तो आज तुम अद्धत बातें कहने लग गई हो! क्या तुम यह बतला सकती हो कि यह प्रथा कबसे चली और इसे किसने चलाया?" कुसुमकुमारी कहने लगी,-"पुराने जमाने के इतिहासों पर ध्यान देने से यह बात भलीभांनि मालूम होजायगी कि महाभारत के बहुत पीछे यह प्रथा उन लोगों ने चलाई है, जिन्होंने अच्छी तरह इस देश के नाश करने पर कमर बांधली थी! खूब ध्यान से जब आप इस "देवदासी प्रथापर विचार करेंगे, तब आपको स्वयं इस प्रथा के गुप्त रहस्य विदित होजायंगे । मैंने जहांतक इस विषय पर विचार किया और इतिहासों को देखा है, उससे यही सार निकलता है कि यह प्रथा दो-ढाई हजार वर्ष से अधिक पुरानी नहीं है। धर्म की ओट में इसके चलानेवाले वेही महात्मा थे, जो गृहस्थाश्रम को छोड़कर भी मोगविलास की कीचड़ में गले तक डूबे हुए थे ! माघिर उन लम्पटी का काम क्योंकर और वे अपने इन्द्रियों मी प्रि कैसे करते इमलिये अपना भोग नष्णा क मिटाने के लिये
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