पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/१५१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१४२ स्वगायकुमम (छससिवा छत्तीसवां परिच्छेद. रहस्य-भेद, "पश्य देवार्पिता कन्यांनीचसंसर्गगामिमाम् । यामुत्सृज्याधुना तात, पुत्रवानसि भूपले॥" (कस्यचिदुक्तिः) ह एक ऐसी दिल के टुकड़े करनेवाली बात थी कि जिसने कर्णसिंह के जिगर के साथ वह काम किया. जो बज्र भी कदाचित् न कर सकता! कुसुम की बात सुनते ही उन्होंने बड़े जोर से एक चीख मारी और तकिये का ढासना लगाकर कुछ देर तक बदहवासी के आलम में गिरफ्तार रहे। इसके बाद बड़ी बड़ी कठिनाइयों से उन्होंने अपना जी ठिकाने किया और कुसुम की ओर हैरत-भरी निगाह से देखकर कहा,- क्या कहा, तूने ? मेरी चन्द्रप्रभा कहां है ?" " यहीं, आपके सामने ही! ” यों कहकर कुसुमकुमारी राजा कर्णसिंह के पैरों पर गिरकर जार-भार रोने लगी. यह देख राजा माहब भी अपने तई न सम्हाल सके, और एक आह सर्द खींच कर बेहोश होगए ! यह देखकर कुसुम ने अपने जेब मे से एक लखलखे की डिबिया निकाली और उसे राजासाहब को सुंघाकर किसी किसी तरह उन्हें होश कराया। होश में आने पर उन्होंने कुसुम के सिर को अपने कलेजे से लगा और संघकर कहा,-"कसुन ! क्या यह बात सच है ? क्या वह अभागिन चन्द्रप्रभा तू ही हैं ? और क्या मेरे जगन्नाथी पण्डे त्र्यम्बक ने मुझे सरासर धोखा दिया है ?" कसुम ने कहा.---"हां, पिताजी ! त्र्यम्बक ले जरूर आपको धोखा दिया. क्योंकि वह दुक्खिनी चन्द्रप्रभा कसुम के रूप में आपके सामने मौजूद है!" यो कहकर उसने अपने बटुए में से टस पुर्ने और तावीज को निकाला जो उसने पण्डे से पाया था फिर उम दोनों