मोटे अक्षरस्वगायकुसुम [छठवा मार न खाई। दो तीन बरस बाद, जब कि मैं नौ-दस बरस की हुई, उस समय मजे में हिन्दी और फारसी पढ़-लिख लेती और बखूबी नाच-मुजरा भी करसकती थी। उस समय एक दिन बाबू कंवरसिंह के यहा कोई जलसा हुआ था और दूर-दूर की रंडियां बुलाई गई थीं उस जलसे में मैं भी चुन्नी के साथ गई थी। भाग्य तो मेरा चमका ही हुआ था, इसलिये मेरे नाचने और गाने को बाव साह्य ने और सभी रंडियों ने सराहा और बाबूसाहब ने ग्यारह सौ रुपये और एक मोती का सतलड़ा मुझे इनाम में दिया। उसी दिन बाबूसाहब के दार में जाफरखां नाम के एक लखनऊ के बीन- कार ने बीन बजाई थी, मुझे वह बाजा ऐसा अच्छा लगा कि डेरे पर आकर मैंने चुन्नीधाई से उस बाजे के सीखने के लिये हट किया। वह वेशक मुझे दिल से चाहती थी, इसलिए चट उसने दो सौ रुपये की एक बीन लखनऊ से मंगवाई और जाफ़रवां को पचास रुपये महीने में रखकर बरस दिन तक मुझे चीन की तालीम दिल- वाई । मैं और भी बरस-छः महीने उनसे बीन सीखती: पर फिर घेन टहरे और चले गए, मगर वे दिल के सच्चे मुसलमान थे क्यों कि उन्होंने जो कुछ मुझे बतलाया, वह साफ़ और सच्चे दिल से,- और कोई बात छिपाई नहीं। फिर तो मैंने बीन के साथ-साथ सितार, तवले, सारगी और सुरबहार को भी सीखना शुरू किया यहां तक कि मैने चौसर, गंजीके, शतरज आदि खेलवाड़ के सीखने में भी सैकड़ों रुपये के और चुन्नी ने खुशी से उन खचों को बर्दाश्त किया; यों ही बारहवें बरस में मैंने पैर रखा। ____“यह मैं पहिले ही कह आई हूँ कि उस पंडे की बातों का ध्यान सुझे हरदम बना रहता था,...सो जब मैं बारहवें बरस में पैर रख चुकी थी, तब एक दिन मेरे जी से यह धुन समाई कि उन तावीज़ों को पढ़। सो, एक दिन मैंने निराले में अपने सोनेवाले खास कमरे का दर्वाजा बंद करके उन दोनों तावीज़ों को अपने मंदूक में से निकाला; क्योंकि उन दोनों को मैं जान से बढ़कर हिफाज़त के साथ रखती थी।" बसंतकुमार ने कहा.-"ज़रा मुझे तो उन यंत्रों को दिखलाओ?" कुसुम ने मुस्कुराकर कहा “मगर उसकी दिसलाई क्या
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