"कार्येषु मन्त्री करणेषु दासी,
भोज्येषु माता शयनेषु रम्भा !
धर्मेऽनुकूला क्षमया धरित्री,
भायर्या च पाड्गुण्यवतोह दुर्लभा ॥"
(स्त्रीधर्ममङ्गले)
दुसरे दिन दस बजे के समय कुसुम की नींद या बेहोशी दूर हुई। उस समय उसकी सूरत देखने से यही जान पड़ता था कि या तो यह महीनों से बीमार है, या फन्त के ज़रिये से इसके बदन का सारा खून निकाल दिया गया है। निदान, उसने पलंग से उठ और मह-हाथ धोकर अपनी तवी- यत ठिकाने की और फिर अपनी एक दासी के साथ कुछ देर तक अकेले में कोई मतलब की बातें की। फिर वह उसी लौंडी के साथ घर के पिछवाड़े-वाले दरवाजे से निकलकर चुपचाप अपने बागकी ओर रवाना हुई ! जिस समय डॉक्टर बेहोश वसंतकुमार की मरहम पट्टी दुरुस्त करके और उसे किसी दवा के साथ दूध पिलाकर उसकी चारपाई के पास बैठा हुआ गौर से किसी किताब को देखरहा था, ठीक उसी समय दबे-पैर जाकर कुसुम उसके पीछे चुपचाप खड़ी हो, बसन्तकुमार की ओर आशा, निराशा, उदासी, बेबसी, आदि भावो से भरी हुई आंखे गड़ाकर देखने लगी थी। वह इतना सन्नाटा मारे और दम बंद किये हुए वहां खड़ी थी कि आध घंटे के बाद किताब बंद करके जब डॉक्टर ने पीछे फिरकर देखा, तब उसे कुसुम का आना जान पड़ा ! उसे देखते ही डॉक्टर ताज्जुब से कुछ बोला ही चाहता था कि कुसुम ने अपनी नाक पर उंगली रख कर उसे चुप रहने का इशारा किया और जब उसने कुसुम से कुछ बात करने का इरादा किया, तब वह डॉक्टर को साथ लिये हुए