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परिच्छेद ।

कुसुमकुमारी

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आंखें खोली। उस समय कुसुम की खुशी का कोई बारापार न रहा! उसने उसी समय सैकडों रुपये अपने प्यारे पर निछावर करके कंगलों को गंद दिये और एक सोने की जंजीर डाक्टर को दी, जिसे यह कहकर उसने लेलिया कि,-'अगर बाबूसाहब की मर्जी होगी तो इसे मैं लेसकूंगा।' यह हम कह आए हैं कि कई ब्राह्मण बाबा सिद्धनाथ के मन्दिर में और वाग़ में भी कुसुम की ओर से पूजा-पाठ करते थे; सो उन लोगों को भी उस दिन बहुत कुछ दिया गया; और उसी दिन, जिस दिन कि उसके प्यारे ने ज़रा सी आंख खोली थी और डॉक्टर ने यों कहा था कि -' अब कोई चिन्ता की बात नहीं है,-' कुसुम ने स्नानकर और सिद्धनाथजी का पूजन तथा ब्राह्मण- भोजन कराकर कछ अन्नजल ग्रहण किया था। यो ही होते-होते पन्द्रह दिन में बसन्तकुमार इस योग्य होगया कि वह पड़े-पड़े बात-चीत कर सके । तब तो कुसुम उसके सो जाने पर सोती, उसके जागने की आहट पाते ही चट उठ बैठती और बीसों लौंडियो के रहते भी जीनान से उस की सारी सेवाख़ुद करतीथी। होशोहवास में आने पर वसन्तकुमार ने धीरे-धीरे कुसुम से एक दिन यों कहा,-"प्यारी, अगर तुम यह चाहती होवो कि,―'मैं जल्दी अच्छा होऊं.'-तो बीन बजाकर और गाकर मेरे दिल में ताकत पहुंचाना शुरू करदो क्यों कि रोगी के हक में “संगीत" से बढ़कर फ़ायदेमन्द दूसरी दवा नहीं है।" यह सुन कुसुम निहायत खुश हुई और फिर वह उस दिन से बराबर सुवह, दोपहर, तीसरे पहर, शाम, आधीरात और पिछली रात को बीन बजा और गा-कर बसन्त के दिलोदिमाग में ताकत पहुंचाने लग गई थी। __'सङ्गीतविद्या' तो सर्व-दुःख-हारिणी हई है, अतएव इससे बसन्त को सचमुच बहुत ही आराम मिलने लगा था; पर वास्तव में उसका दिली मकसद तो यह था कि, जिसमें गाने-बजाने में उलझी रहने के कारण कुसुम के दिलोदिमाग को भी कुछ आराम मिले और इतनी जाँफ़िशानी के साथ सेवा-टहल करने की हरारत बराबर दूर होती रहे। 'आखिर, हुआ भी ऐसा ही,-और गाने-बजाने से उन दोनों के दिलोदिमाग हर-वक्त हरे और ताजे बने रहने लगे