[सत्रहवां
"एतत्कामफलं लोके यद् द्वयोरेकचित्तता।
अन्यश्चित्तकृते कामे शवयोरिव सङ्गमः॥"
(भृत हरिः)
चैत्र मास की पूर्णिमा की चटकीली चांदनी में कुसुम- कुमारी अपने मकान की छत पर गावतकिये के सहारे लस उदास बैठी हुई किसी सोच-बिचार मे गोते खा रही थी और उसकी हमदर्द लौंडी बिलसिया सामने बैठी हुई उसका पैर दाब रही थी। थोड़ी देर में कसुम ने चिहुंककर बिलसिया से कहा,-" तो क्या तू कुछ समझ सकती है कि उनकी नाराज़ी का क्या सबब है?" बिलसिया,-"सरकार ! भला, मियां-बीबी की लड़ाई का भेद मैं क्या जानूं !" कसुम,-"चल, चोचले रहने दे और ठीक-ठीक हाल बतला कि वे किस लिए मुझसे खफ़ा होगए हैं ?" बिलसिया, “भला, मैं क्या नज़मी हूँ कि उनके दिल का हाल बतलादूं लेकिन खैर, आप उन्हें खत क्यों नहीं भेजती ?" कुसुम, “अच्छा, जा, तू कलमदान और शमादान ले आ।" बिलसिया,- “और कल जो आपने दोहे लिखे हैं ? कुसुम,-"उन्हें अभी रहने दे।" निदान, कलमदान के आने पर कुसुमकुमारी ने एक खत लिख कर बिलसिया को दिया, जिसे लेकर वह तुरंत बसन्तकुमार के घर चली गई। हमारे पाठकों को यह सुनकर बड़ाताज्जुब होगा कि इधर जबसे बसन्तकुमार मार खाट से उठा है, कुसुम से कुछ खिच गया है, पर ऐसा क्यों हुआ? इस के जवाब में हममी बिलसिया ही के कहने का अनमोदन करते हैं कि- भला, मिया बीबी की लडाईका भेद इम