पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/६०

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परिच्छेद]

पूछा,--- और मैं कहा जाऊ ? प्यारी!" अहा! बसन्त को देखते ही कुसुम तेजी के साथ उट और दौड़ कर उसके गले से लपट गई और बोली,-" निर्दई ! तुम अब मेरे सामने से कहीं मत जाओ!" बसन्त,-"नहीं, नहीं, अब यह कभी नहीं हो सकता; इसलिए अब मैं भी वहीं जाताहूं, जहां तुमने विलासिनी को जाने के लिये कहा है !" कुसुम,-(दो गुलचे लगाकर)" हाय, तुम तो प्यारे, बड़े भारी नटखट हौ!" “मगर तुमसे तौल में कम!!!" यों कहकर उसने कुसुम के गले से सोने की इकलड़ी सिकरी उतार कर बिलसिया को दे दी और कुसुम के साथ मसनद पर बैठकर कहा,"तुम्हारी आंखें इतनी सूज क्यों आई हैं ?" कुसुम,- "क्या, मालूम !" बसन्त.-" क्या तुम रोई थीं ? " कुसुम,-"तुम्हे इन बातो से मतलव ?" बसन्त,-"मतलब तो कुछ भी नहीं, यों ही घूछा था!" कुसुम,-" इस वक्त, आधी रात को, इतनी तकलीफ़ करने की क्या जरूरत थी?" बसन्त,-"जी, कुछ भी नहीं; लेकिन फिर खत ही लिखने से क्या गरज़ थी ?" कुसुम,-" यों ही जी में आया, लिख दिया!" बसन्त,-" बस, यों ही जी में आया, चला आया; कहो तो अब चला जाऊं?" कुसुम,-" तो रोकता ही कौन है ?" बसन्त,--" बेहतर, रुखसत होता हूं!" यों कहकर जब वह उठने लगा, तव कुसुम ने उसका हाथ पकड़ कर बैठोलिया और कहा, "खैर, जाते हो तो जाओ, लेकिन फ़क़त मेरी एक बात का जवाब देते जाओ!" बसन्त,-" खैर, इतना और भी सही!! कुसुम,-"तुमने गंगा की गोद में बैठकर किसी बात की कमी कोई कसम भी खाई थी?" बसन्त,―“कब