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पृष्ठ:कुसुमकुमारी.djvu/६२

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कुसुमकुमारी


के, और फ़ायदा ही क्या है ?"

कुसुम,-"जलना कैसा ?"

बसन्त,-" आह, बड़ी भोली ! गोया बेचारी कुछ जानती ही नहीं !"

कुसुम,-" अय, प्यारे ! मैं तुम्हारे सिर की कसम खाकर कहती हूं कि मैं तुम्हारी यह पहेली ज़रा भी नहीं समझी !”

बसन्त,-" हाय, क्या मेरा सिर इतना सस्ता है, जो इसके खाने का इरादा करती हो!"

कुसुम,-(आंसू भरकर) "हाय, प्रान! आज ऐसी बातें क्यों हो रही हैं ?"

बसन्त,-" इस लिये कि, जो जलने पर और कैसी वार्ते की जाती हैं।

कुसुम,-" सोई तो मैं भी पूछती हूँ कि इतनी जलन किस- लिए पैदा हुई ?"

बसन्त,-" बराबर तुम्हारे साथ रहने से!"

कुसुम,-(घबराहट से)" ऐ! मेरे साथ रहने से तुम्हें जलन पैदा हुई? हाय, दई! मैं अब ऐसी हो गई! हाय, प्यारे! मैं अब जलाने-वाली हुई !!!"

बसन्त,-"बेशक, अब तुम ज़रूर जलाने वाली हुई हो; इस बात को मैं बहुत आसानी से साबित कर दूंगा-और उसमें शर्त यह है कि तब तुम भी उस बात से हर्गिज़ इन्कार न कर सकोगी; लेकिन जरा ठहरो और पहिले मुझे वह " प्रेमपत्रिका " तो दिखलाओ, जिसे तुमने मेरी गैर-मौजूदगी में लिखा है ?"

यह सुन और मुस्कुराकर कुसुम ने कहा,-" उस पत्रिका का

हाल तुम्हें कैसे मालूम हुआ?"

वसन्त, (हँसकर)" मैंने सपना देखा था!"

कुसुम, (मुंह चिढ़ाकर )" हूं! मेरा सिर देखा था ! यह सारी शरारत निगोड़ी विलसिया की है !"

बसन्त,-" यह 'निगोड़ी' नहीं, बल्कि सगोड़ी है। क्योंकि इसके दोनों गोड़ (पैर) अभी कटे नहीं, मौजूद हैं !” यह सुन, कुसुम हंसने लगी और बिलसिया ने वह "प्रेमपत्रिका" कलमदान में से निकालकर बसन्त के आगे रख दी!

प्यारे पाठक वह

                                                                   आगे देखिए,