दिखलाई और इतने सम्मान-सहित वे उत्तीर्ण हुए कि उनको उस उपलक्ष में ४०० रुपये का पारितोषिक मिला।
वामनराव का विवाह, पूना-निवासी गणेश वासुदेव जोशी की कन्या से, १८७७ ईसवी में हुआ। गणेश वासुदेव एक सर्वप्रिय, सर्वमान्य और धनी पुरुष थे। उन्होंने वामन-राव की अकिञ्चनता का किञ्चिन्-मात्र भी विचार न करके केवल उनकी विद्वत्ता, बुद्धिमत्ता और सदाचरण पर लुब्ध होकर अपनी कन्या उनको समर्पित की। इससे व्यक्त होता है कि गणेश वासुदेव ने विद्या के सम्मुख और बातों को तुच्छ समझा। वामनराव की पत्नी यद्यपि एक धनी के घर की थी तथापि ऐसा सद्गुणी पति पाकर उसको वामनराव की निर्धनता, स्वप्न में भी, दुःखदायिनी न हुई; उलटा उसने, इस संयोग से अपने को परम भाग्यशालिनी माना। सुनते हैं, वह रूपवती न थी, तथापि पति और पत्नी दोनों ने अपने-अपने सद्गुणों से एक दूसरे को ऐसा मोहित कर लिया था कि परस्पर कभी कलह, मतद्वैध अथवा किसी प्रकार का अप्रिय व्यवहार नहीं हुआ। वामनराव को इस पत्नी से दो कन्यायें हुई और एक पुत्र भी हुआ। परन्तु, खेद है, पुत्र नहीं रहा। कन्या भी, शायद, एक ही इस समय जीवित है।
दक्षिण में विष्णु कृष्ण शास्त्री चिपलूनकर बड़े विद्वान् हो गये हैं। उनके कई मराठी-निबन्धों का हिन्दी-अनुवाद नागपुर-निवासी पण्डित गङ्गाप्रसाद अग्निहोत्री ने किया