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विष्णु शास्त्री चिपलूनकर


कि अपने देश के दोषी को स्वीकार करने मे भी वे सङ्कोच न करते थे। उन्होने यह स्पष्ट कहा है कि "हमारा उद्देश सत्य के निरूपण करने का है। हम अपनी भूल प्रसन्नता-पूर्वक मानने को प्रस्तुत हैं। अपने देश की एक-आध बात अनुकरणीय होने ही से उसकी प्रशंसा करना अथवा उसके वास्तविक दोषो को छिपाना, दोनो बातें, हमको पसन्द नही। ये दोनो ही निन्द्य है। जो मनुष्य न्यायी और निष्पक्षपाती है उसे ऐसा व्यवहार कदापि सहन नही हो सकता"। सच है, अपनी भूल न स्वीकार करना मूर्खता का चिह्न है। उदारचेता और न्यायशील पुरुष कभी सत्य का अपलाप नही करते।

विष्णु शास्त्री ने यद्यपि आर्यसमाज, प्रार्थनासमाज और बाइबल के अनुयायियों पर अपनी "निबन्धमाला" मे ठौर-ठौर पर बड़े ही मर्मभेदी आघात किये हैं, तथापि उनके पूर्वोक्त वाक्यों और 'लोकभ्रम' तथा 'अनुकरण' इत्यादि निबन्धों से यह सूचित होता है कि उनके धार्मिक विचार सङ्कुचित न थे। क्या ही अच्छा होता यदि इस विषय पर वे अपना मत स्पष्टतापूर्वक प्रदर्शित कर देते। एक स्थल पर उन्होने इतना अवश्य लिखा है कि "धर्म के समान वादग्रस्त विषय पर व्यर्थ वाद-प्रतिवाद करते बैठना और परस्पर की न्यूनताओ को दिखलाते रहना अनुचित है। ऐसा करने की अपेक्षा जन्म से जो धर्म जिसे प्राप्त हुआ है उसी मे रहकर सदाचरण करना उत्तम है।"