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खग्रास

रख दिया, और वह चल दी। अबोध बालक की भॉति तिवारी बाला के पीछे पीछे चल दिए। नाश्ता वही शाही ठाठ का था, उसमे गाजरो की एक डिश भी थी।

प्रतिभा ने हँसकर कहा—"ये गाजरे मैने कल ही बोई थी"

गाजरो से बने उस स्वादिष्ट पदार्थ को खाते हुए तिवारी ने कहा—"आखिर मैं किस-किस वस्तु पर आश्चर्य करूँ? आपने उस दिन कहा था कि आपके बहुत से नौकर चाकर है। रंग-ढंग से भी यही प्रतीत होता है। इतनी बड़ी कोठी की सफाई ही बिना ३-४ आदमियो के नही हो सकती है। फिर और भी तो काम है। साधारण सेवा, भोजन बनाना आदि को एक तरफ छोडिए, आपके यहाँ जो इतने असाधारण वैज्ञानिक यन्त्र है, उनके लिये भी तो दर्जनो आदमी दरकार है।"

बाला ने हँसते हुए कहा—"जहाँ विज्ञान साक्षात मानव की सेवा करने को उपस्थित है, वहाँ मानव सेवा क्यो करेगा। मानव का जन्म तो जीवन के चरम आनन्द लेने को है, वह सेवा क्यो करे। यह तो संसार की मूढता है कि उसने मानव को ही इतना हीन बना रखा है कि वह मानव ही की सेवा करते करते मर मिटता है। भला मानव मानव मे अन्तर क्या है?"

"क्यो? अन्तर तो बहुत है। कोई मूर्ख है, कोई विद्वान्, कोई धनी है, कोई निर्धन, कोई बलवान् है कोई निर्बल। फिर सब समान कैसे?"

"केवल मानव होने के नाते। प्रत्येक मानव एक ही श्रेणी का है। वह देवता के समान पूजा जाने योग्य है। मानव दुनिया की सबसे बड़ी इकाई है। उससे बडा विश्व मे और नही है।"

"क्या भगवान् भी नहीं?"

"आपका यह कहना आपका दोष नही। चिरकाल से मनुष्य अपनी सत्ता से बेखबर और मूढ रहा है और उसके अनुमान को प्रणाम करके अपने को छोटा बनाया है।"

"अनुमान को प्रणाम कैसे?"