पृष्ठ:खग्रास.djvu/२८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२९०
खग्रास

बुझाया। उसे बहुत सोना देना चाहा, पर वह उस स्थान की जरा सी धूल लेकर रोता हुआ चला गया जहाँ पापा खडे थे। बाद मे मैने जाकर देखा कि पापा उस आदमी के लिए रो रहे थे।"

"ओफ!"

नाश्ते के नए-नए भोज्य पदार्थ वह अद्भुत रेलगाडी एक के बाद दूसरे लाती जा रही थी। प्रत्येक वस्तु ताजा और स्वादिष्ट थी। बारबार बाला तिवारी को खाने की याद दिलाती थी, पर तिवारी बाला की बातो मे हर बार खाना भूल जाते थे, हाथ का ग्रास हाथ में लेकर प्रतिभा की उस मूर्ति की बाते सुनते थे।

एक खटके का शब्द सुन कर बाला उठ खडी हुई । उसने कहा—"पापा आ रहे है।"

तिवारी भी खडबडा कर उठ खडे हुए। बाला की भॉति वे भी उसी द्वार की ओर देखने लगे जिधर से वे गूढ महापुरुष आने वाले थे। उनका हृदय वेग से धडक रहा था।

साक्षात्कार

आगे को कमर झुकी हुई। दोनो हाथ पीठ पर। बडे-बडे पलक जैसे आँखो पर झूलते हुए। छितरी हुई गंगा जमुनी दाढी, गौर वर्ण, गठीला शरीर, विशाल वक्ष, मोटी ठोडी, शुक नासिका बहुत बडे-बडे कान, सिर के गंगा जमुनी बाल कन्धो तक बिखरे हुए, घनी मूछो मे छिपे सम्पुटित ओष्ठ। लम्बा कद। बदन पर एक ढीला कुरता, टखनो तक लटका हुआ।

धीरे-धीरे जैसे कोई गम्भीर चिन्तन मे मग्न हो, वह चले आ रहे थे। प्रतिभा ने आगे बढ़ कर कहा—"पापा, तिवारी आप से मिलने को बड़ी देर से बैठे है।"

"मैने देख लिया था इन्हे, इसीसे तो जल्दी चला आया। बातचीत तो अभी खत्म नही हुई। कुछ उलझने है। पर मेरा खयाल है उनका मेचटा पाँच