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खग्रास


इतना कह कर उन्होने अपना मस्तक झुका दिया। सभी जनो ने खडे होकर भारत के अभिवादन मे योग दिया।

विसर्जन

गूढ पुरुष आज गम्भीर थे। ऐसी ही हालत प्रतिभा की भी थी। गूढ पुरुष आराम कुर्सी पर सिर झुकाए चुपचाप अधलेटे से बैठे थे। और प्रतिभा ऑखो मे आँसू भरे उगलियो से उनके बाल सहला रही थी। परन्तु दोनो मे से कभी किसी की भी नही पटती थी। बहुत देर से भावो का यह मूक आदान-प्रदान चल रहा था।

तिवारी के वहाँ पहुचने पर भी गूढ पुरुष चल विचत नही हुए। प्रतिभा ने एक बार केवल उनकी ओर देख भर लिया और ऑखे नीची करली। तिवारी नही समझ सके कि बात क्या है। वे काठमारे की भॉति चुपचाप बडी देर तक खडे रहे।

अकस्मात् गूढ पुरुष ने जैसे नीद से जगकर कहा—"मेरे साथ आयो बच्चो", और वे उसी लिफ्ट की तरफ गए-जिस पर तिवारी अनेक बार जा चुके थे। प्रथम आताल पाताल मे और फिर शृंग चोटी पर। वहाँ पहुँचकर क्षणभर गूढ पुरुष स्तब्ध खड़े रहे। फिर उन्होने वाष्पाकुल नेत्रो से तिवारी की ओर और फिर प्रतिभा की ओर देखकर मन्द स्वर से कहा—"यह मत समझना तुम लोग कि पापा ने तुम पर अत्याचार किया। तुम समझदार हो फिर भी मै तुम्हारे साथ अभी भी बच्चो की भॉति व्यवहार करूगा।" उन्होने प्रतिभा की ओर देखकर कहा—"तुम्हे कुछ उज्र है?"

"नही पापा"

"ओर बेटे तुरहे?"

"नही पापा", तिवारी ने यन्त्र चालित सा होकर कहा।

"तो मेरे बच्चो अब से तुम सुख मे दुख मे जीवन पर्यन्त, जब तक दोनो मे से किसी एक का जीवनद्वीप बुझ न जाए—एक हो।"