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खग्रास

"हाँ, २१ अबटूबर ही तो। आज नौ नवम्बर है, पूरे उन्नीस दिन मैं पृथ्वी से पृथक् रहा जिनमे से तीन दिन मैंने चन्द्र लोक में व्यतीत किए।"

"मानव इतिहास की सबसे निराली बात हुई।"

"हुई ही। परन्तु मुझे लौटकर फिर पृथ्वी पर आने की जरा भी आशा न रही थी। वह तो मुझे एक दैवी सहायता मिल गई।"

"दैवी सहायता?"

"निस्सदेह। हमारी सफलता का पूरा श्रेय हमारी वैज्ञानिक प्रगति को नही है। प्रकृति की अघटन घटना ही को है।"

"खैर, तो तुम मुझे सक्षेप में सारी बाते सुना दो।"

"जब हम चले थे, तुम्हे याद है न, मैंने एक आपत्ति की थी।"

"हाँ, हाँ, शून्याकाश में विचरण करती हुई उल्काओ के सम्बन्ध मे।"

"बेशक। अन्तरग्रह की यात्राओ के सम्बन्ध में सभी कठिनाइयो को हमने हल कर लिया था।"

"राकेट का ईंधन, जमी हुई वायु और प्राण वायु की आवश्यकता।"

"हाँ, ये सब कठिनाइयाँ तो विज्ञान के बल पर हम हल कर ही चुके थे। कास्मिक किरणो का मसला भी मैंने हल कर लिया था। पर शून्याकाश में विचरण करती हुई उल्काओ की टक्कर से बचने का हमारे पास कोई हल न था। और मैं वास्तव में इस विपत्ति का जोखिम सिर पर रख कर ही उड़ चला था।"

"लेकिन यह बात तुमने मुझसे नही कही थी।"

"कहता तो तुम क्या मुझे जाने देती?"

"हरिगिज़ नही जाने देती।"

"इसी से मैंने तुमसे नही कहा। हमारा राकेट छत्तीस हजार मील की यात्रा की सब सामग्रियो से सम्पूर्ण था। ईंधन और दूसरे उपकरण बहुत सावधानी से हमने रख लिए थे। यह तो तुमको मालूम ही है।"

"मुझे सब मालूम है। हमारी वैज्ञानिक धारणा यही तो थी कि पृथ्वी की आकर्षण शक्ति के विरुद्ध चलने के लिए कम से कम ३६ हजार मील प्रति घण्टा की गति आवश्यक होगी।"