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खग्रास

आते जाते थे। चारो ओर अनन्त गहन नीलाम्बर, जिनमे बिखरे हुए अनगिनत नक्षत्र। जिनकी ज्योति और आकृति के सम्बन्ध में हम पृथ्वी पर रहकर कुछ भी नहीं जान पाते थे। पृथ्वी पर तो वायुमण्डल तथा धूल के कारण तीन चौथाई नक्षत्र तो हम देख ही नहीं पाते और जिन्हें देख पाते है, उनका स्वरूप प्रकाश-परावर्तन के कारण सर्वथा ही बदला रहता है।"

पृथ्वी की कक्षा में

अब मैं पृथ्वी से बारह हजार मील ऊपर जाकर भूमण्डल के चारो ओर चक्कर लगा रहा था। और मुझे पृथ्वी से चले पूरे नौ घण्टे हो चुके थे। मास्को की वेधशाला से बराबर मेरा सम्बन्ध कायम था, और हमारे सन्देशो का आदान प्रदान होता जाता था। मैं अब वायुमण्डल के भीषण संघर्ष से बच गया था। इसके लिए मुझे मास्को से वधाई के सन्देश दिए जा रहे थे। और मैं क्षण-क्षण पर बदलते हुए दृश्यो और परिस्थितियो के चित्र और विवरण मास्को भेज रहा था। वाह! कैसे अनदेखे दृश्य थे---पृथ्वी का चमकता हुआ गोला जब सामने आता था, तो महासागरो का अथाह जल पिघली हुई चाँदी का अनन्त विश्व सा लग रहा था। पृथ्वी के आकर्षण से बद्ध वह तरल जल सागर सघन पिण्ड सा लग रहा था। जब रात सामने आती थी, तब पृथ्वी का भीषण काला स्वरूप अनिर्वचनीय लगता था। प्रतिदिन बारह बार पृथ्वी का दिन और बारह रात देख रहा था। पृथ्वी से मैं बारह हजार मील के अन्तर पर था पर पृथ्वी के समुद्र पर्वत मैदान मेरे सामने से तीर की भॉति निकल रहे थे। परन्तु दूसरी ओर मेरे पास ऐसी टेलीवीजन व्यवस्था भी थी कि मैं पृथ्वी के चाहे भी जिस भीतरी भाग का प्रत्यक्ष दर्शन कर सकता था। मैंने दिन में कई बार तुम्हे देखा, प्रोफेसर को भी देखा। परन्तु मुझे अवकाश एक क्षण का भी न था। मुझे अनगिनत यन्त्रो पर नियन्त्रण रखना पड़ रहा था। सन्देश भेजने, ग्रहण करने, फोटो उतारने, ताप, दूरी और हवा के दबाव नापने पड़ते थे। मेरा प्रत्येक क्षण व्यस्त और सन्तुलित था। इस प्रकार पूरे बारह दिन मैं पृथ्वी की कक्षा मे पृथ्वी से समानान्तर १३ हजार मील के अन्तर पर घूमता रहा।