पृष्ठ:खूनी औरत का सात ख़ून.djvu/४२

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खूनी औरत का।

ओर में देख भी न सकी।

वे फिर कहने लगे,--" एक बात और है। "

मैने देखे बिना ही उत्तर दिया,--" आज्ञा कीजिए।"

वे बोले,--" आशा करना तो अब व्यर्थ है, क्योंकि वह तो मानी ही नहीं जाती! हां, ग्रार्थना अवश्य की जासकती है। सो भी सब, जब उसके मान लेने की आशा की जाय । "

मैं इस ढंग को सनकी बातें सुनकर मन ही मन बहुत ही सकपकाई कि वे कौन सी ऐसी बात कहना चाहते हैं, जिसके लिये इतनी भूमिका बांध रहे हैं ! परन्तु मारे लाज के मेरी गांखें उनकी ओर न सकी और मैगे सिर झुकाए हुए ही यों कहां,--"आप जो कुछ कहना चाहते हों, उसे कृपाकर काहिए।"

वे बोले,--"अब मैं क्योंकर तुमसे कुछ कह सकता हूं, जब कि तुम इतनी बड़ी हठीली हो फि अपनी " टेक के आगे किसी के कहने-सुनने पर कुछ ध्यान ही नहीं देती।"

अब भला, उनकी ऐसी बात का मैं क्या जवाब दे सकती थी! अस्तु, मैं कुछ न कुछ कहना ही चाहती थी कि इतने ही में भाईजी आगए और मैंने कुछ कहने-सुनने से छुट्टी पाई।

भाईजी अपनी कुर्सी पर बैठकर वारिस्टर साहब से अंगरेजी में कुछ बात चीत करने लगे, इतने ही में साहब बहादुर भी आ गए और अन्होंने अपनी कुसों पर बैठकर मुझसे यों कहा,- "डुलारी, अब टुम भागे बोलो।

यह सुनकर मैने कहा,--" बहुत अच्छा ; सुनिए,-यद्यपि कालू की बातों में मेरे कलेजे को मसल डाला था, पर बहुत जल्द मैने अपने जो को ठिकाने किया और इशारे से कालू को अपने पास बुलाया।