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पृष्ठ:खूनी औरत का सात ख़ून.djvu/८९

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सात खून।

में कानपुर रवाने की गई और साहब बहादुर और कोतवाल साहब वहीं रह गए। यहां पर एक बात और भी समझ लेनी चाहिए। वह यह है कि अब जिस बैलगाड़ी पर मैं कानपुर जा रही थी, यह दूसरी थी, मेरी न थी। तो मेरी क्या हुई ? यह मैं नहीं जानती, क्योंकि इसके विषय में मुझसे किसी ने कुछ भी नहीं कहा।

कानपुर लाई जाकर मैं कोतवाली की एक तङ्ग कोठरी में बन्द की गई । उस समय दीया चल चुका था। मेरे साथ जो भार कांस्टेबिल आए थे, वे सब कानपुर के थे, इस गावं के नहीं थे।

एक घड़ी पीछे एक कांस्टेबिल में आ कर मुझसे यह पूछा कि,--"तुझे कुछ खाना-पीना है ?"

इस पर " नहीं " कह फर मैंने उसे विदा किया और कोठरी में पड़े हुए कंबल के ऊपर मैं पढ़ रहो।

मुझे आज सारे दिन का कोरा उपवास था और कल रामदयाल का दिया हुआ केवल दूध मैने पीया था। फिर भी उस कांष्टेबल को मैने लौटा दिया और कुछ भी न स्वाया। यह क्यों ? भला, अब इसका जवाब मैं क्या दूं ? मेरे पास यदि इस बात का कोई जवाब है तो केवल यही है कि उस समय भी मैं अपने आपे में न थी और पगली की तरह रह रह कर चिहुंक उठती थी। मुझे रह रह कर अपनी माता को शोधनोय मत्यु, अपने पिता का योंहीं नदी में बहाया जाना, हिरवा का मरना, फालू इत्यादि का आपस में कट मरना, अबदुल्ला मोर हींगन का परस्पर लड़ मरना और मुझे इन सात-सात खूनों का अपराध लगाया जाना, इनमें से प्रत्येक बात ऐसी थी, जो मेरे फलेजे को एक दम से मीसे डालती थी।

सो, बम, देर तक मैं उम कंपल पर पड़ी पड़ी तरह तरह के सोच-विचारों में डूपती उतराती रही । उसके बाद मुझे नींद आ गई, पर उस नींद में भी मुझे चैन न मिला, बरन बड़े बड़े पुरे बुरे सपने दिखाई देने लगे!!!