पृष्ठ:खूनी औरत का सात ख़ून.djvu/९८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ९४ )
खूनी औरत का


समझती हूँ कि स्त्रियों के लिये अपमानित होने की अपेक्षा पर जाना कड़़ोर गुना अच्छा है ! अस्तु ।

बस, इसी तरह के बहुतेरे खयालों में कितनी देर तक मैं उलझी रही, यह तो अब मुझे नहीं याद है, पर इतना जरूर स्मरण है कि मैं उन्हीं खयालों में देर तक डूपती उतराती रही । इसके बाद कब मैं लुढ़क कर नींद में वेसुध होगई, इसकी मुझे सुधि नहीं है।

योंही दो पहर की सोई-साई मैं रात के नौ बजे तक बेखबर पड़ी रही । फिर जय रघुनाथसिंह कोस्टेग्रिल गे मुझे जगाया, तब कहीं मेरी नींद खुली गौर तभी उनकी जमानी मुझे यह मालूम हुआ फि रात नौ के ऊपर पहुंच चुकी है !

भली भांति जब मेरी नींद की खुमारी दूर होगई और मैं उठ कर मजे में बैठ गई,तय रघुनाथसिंह ने मुझसे यों कहा-"दुलारो, शिवरामतिवारी की जवानी मुझे यह मालूम हुआ है कि भाज तुमने कुछ भी नहीं खाया-पोया है ! अरे, इतना हठ तुम क्यों करती हो ? यह तो कोतवाली है ! सो,यहां पर आकर और फिर यहांसे जेल के अन्दर जाकर सभी जाति के लोग रसोई खाते हैं । फिर तुम इस कायदे से कैसे बरी होसकती हो ? मगर खैर, तुम्हारे जो जी में आवे सो करना, लेकिन इस वक्त अगर तुम मंजूर करो तो मैं तुम्हें दूध ला दूं ? "

इसपर मैने यों कहा,--"सुनो भाई, जब कि थाने के अफसर को ही इस बात का कोई खयाल नहीं है कि, 'उनफा कोई कैदी भूखा-प्यासा है, तब तुम इतनी मगज-पञ्ची क्खों कर रहे हो? देखो, और साफ-साफ सुन लो कि मैं यहां, या जेल जाने पर भी, सिवा दूध फे, और किसी चीज को भी ग्रहण नहीं करूंगी। इसमें चाहे मुझे भूखी ही कों न मरजाना पड़े, पर बाह्मण-कुमारी होकर मैं आचार विचार की यो हत्या कभी भी नहीं करने की।"