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चिकनी-चुपड़ी बातें करता और अच्छे कंबल माँगता। यह देवता बिना कुछ कहे, निर्व्याज भाव से चले जा रहे हैं, तो अवश्य कोई त्यागी जीव हैं। उसने लपककर रमा का हाथ पकड़ लिया और बोला-आओ तो महराज, आपके लिए चोखा कंबल रखा है। यह तो कंगलों के लिए है। रमा ने देखा कि बिना माँगे एक चीज मिल रही है, जबरदस्ती गले लगाई जा रही है, तो वह दो बार और नहीं-नहीं करके मुनीम के साथ अंदर चला गया। मुनीम ने उसे कोठी में ले जाकर तख्त पर बैठाया और एक अच्छा सा दबीज कंबल भेंट किया। रमा की संतोष वृत्ति का उस पर इतना प्रभाव पड़ा कि उसने पाँच रुपए दक्षिणा भी देनी चाही, किंतु रमा ने उसे लेने से साफ इनकार कर दिया। जन्म-जन्मांतर की संचित मर्यादा कंबल लेकर ही आहत हो उठी थी। दक्षिणा के लिए हाथ फैलाना उसके लिए असंभव हो गया।

मुनीम ने चकित होकर कहा-आप यह भेंट न स्वीकार करेंगे, तो सेठजी को बड़ा दुःख होगा।

रमा ने विरक्त होकर कहा-आपके आग्रह से मैंने कंबल ले लिया, पर दक्षिणा नहीं ले सकता। मुझे धन की आवश्यकता नहीं। जिस सज्जन के घर टिका हुआ हूँ, वह मुझे भोजन देते हैं। और मुझे लेकर क्या करना है?

'सेठजी मानेंगे नहीं!"

'आप मेरी ओर से क्षमा माँग लीजिएगा।'

'आपके त्याग को धन्य है। ऐसे ही ब्राह्मणों से धर्म की मर्यादा बनी हुई है। कुछ देर बैठिए तो, सेठजी आते होंगे। आपके दर्शन पाकर बहुत प्रसन्न होंगे। ब्राह्मणों के परम भक्त हैं और त्रिकाल संध्या-वंदन करते हैं महराज, तीन बजे रात को गंगा-तट पर पहुँच जाते हैं और वहाँ से आकर पूजा पर बैठ जाते हैं। दस बजे भागवत का पारायण करते हैं। भोजन पाते हैं, तब कोठी में आते हैं। तीन-चार बजे फिर संध्या करने चले जाते हैं। आठ बजे थोड़ी देर के लिए फिर आते हैं। नौ बजे ठाकुरद्वारे में कीर्तन सुनते हैं और फिर संध्या करके भोजन पाते हैं। थोड़ी देर में आते ही होंगे। आप कुछ देर बैठे, तो बड़ा अच्छा हो। आपका स्थान कहाँ है?'

रमा ने प्रयाग न बताकर काशी बतलाया। इस पर मुनीमजी का आग्रह और बढ़ा, पर रमा को यह शंका हो रही थी कि कहीं सेठजी ने कोई धार्मिक प्रसंग छेड़ दिया, तो सारी कलई खुल जाएगी। किसी दूसरे दिन आने का वचन देकर उसने पिंड छुड़ाया। नौ बजे वह वाचनालय से लौटा, तो डर रहा था कि कहीं देवीदीन ने कंबल देखकर पूछा, कहाँ से लाए, तो क्या जवाब दूंगा। कोई बहाना कर दूँगा। कह दूँगा, एक पहचान की दुकान से उधार लाया हूँ। देवीदीन ने कंबल देखते ही पूछा-सेठ करोड़ीमल के यहाँ पहुँच गए क्या, महराज? रमा ने पूछा-कौन सेठ करोड़ीमल? 'अरे वही, जिसकी वह बड़ी लाल कोठी है।'

रमा कोई बहाना न कर सका। बोला–हाँ, मुनीमजी ने पिंड ही न छोड़ा बड़ा धर्मात्मा जीव है। देवीदीन ने मुसकराकर कहा-बड़ा धर्मात्मा! उसी के थामे तो यह धरती थमी है, नहीं तो अब तक मिट गई होती! रमानाथ-काम तो धर्मात्माओं के ही करता है, मन का हाल ईश्वर जाने। जो सारे दिन पूजा-पाठ और दान-व्रत में