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सत्यदेव हैं, पक्का मकान खड़ा कर दिया, जमींदारी खरीद ली, बेटी के ब्याह में कुछ नहीं तो पाँच हजार तो खर्च किए ही होंगे।

दयानाथ–जभी दोनों लड़के भी तो चल दिए!

रामेश्वरी-मरना-जीना तो संसार की गति है, लेते हैं, वह भी मरते हैं, नहीं लेते, वह भी मरते हैं। अगर तुम चाहो तो छह महीने में सब रुपए चुका सकते हो।

दयानाथ ने त्योरी चढ़ाकर कहा—जो बात जिंदगी भर नहीं की, वह अब आखिरी वक्त नहीं कर सकता। बहू से साफ-साफ कह दो, उससे परदा रखने की जरूरत ही क्या है और परदा रह ही कितने दिन सकता है। आज नहीं तो कल सारा हाल मालूम हो ही जाएगा। बस तीन-चार चीजें लौटा दे तो काम बन जाए। तुम उससे एक बार कहो तो।

रामेश्वरी झुँझलाकर बोली-उससे तुम्हीं कहो, मुझसे तो न कहा जाएगा।

सहसा रमानाथ टेनिस-रैकेट लिये बाहर से आया। सफेद टेनिस शर्ट, सफेद पतलून, कैनवस का जूता। गोरे रंग और सुंदर मुखाकृति पर इस पहनावे ने रईसों की शान पैदा कर दी थी। रूमाल में बेले के गजरे लिये हुए था। उससे सुगंध उड़ रही थी। माता-पिता की आँखें बचाकर वह जीने पर जाना चाहता था कि रामेश्वरी ने टोका-इन्हीं के तो सब काँटे बोए हुए हैं, इनसे क्यों नहीं सलाह लेते? (रमा से) तुमने नाच-तमाशे में बारह-तेरह सौ रुपए उड़ा दिए, बतलाओ, सर्राफ को क्या जवाब दिया जाए-बड़ी मुश्किलों से कुछ गहने लौटाने पर राजी हुआ, मगर बहू से गहने माँगे कौन-यह सब तुम्हारी ही करतूत है।

रमानाथ ने इस आक्षेप को अपने ऊपर से हटाते हुए कहा—मैंने क्या खर्च किया, जो कुछ किया, बाबूजी ने किया। हाँ, जो कुछ मुझसे कहा गया, वह मैंने किया।

रमानाथ के कथन में बहुत कुछ सत्य था। यदि दयानाथ की इच्छा न होती तो रमा क्या कर सकता था? जो कुछ हुआ, उन्हीं की अनुमति से हुआ। रमानाथ पर इलजाम रखने से तो कोई समस्या हल न हो सकती थी। बोले—मैं तुम्हें इलजाम नहीं देता भाई। किया तो मैंने ही, मगर यह बला तो किसी तरह सिर से टलनी चाहिए। सर्राफ का तकाजा है। कल उसका आदमी आवेगा। उसे क्या जवाब दिया जाएगा? मेरी समझ में तो यही एक उपाय है कि उतने रुपए के गहने उसे लौटा दिए जाएँ। गहने लौटा देने में भी वह झंझट करेगा, लेकिन दस-बीस रुपए के लोभ में लौटाने पर राजी हो जाएगा। तुम्हारी क्या सलाह है?

रमानाथ ने शरमाते हुए कहा-मैं इस विषय में क्या सलाह दे सकता हूँ, मगर मैं इतना कह सकता हूँ कि इस प्रस्ताव को वह खुशी से मंजूर न करेगी। अम्माँ तो जानती हैं कि चढ़ावे में चंद्रहार न जाने से उसे कितना बुरा लगा था। प्रण कर लिया है, जब तक चंद्रहार न बन जाएगा, कोई गहना न पहनूँगी।

रामेश्वरी ने अपने पक्ष का समर्थन होते देख, खुश होकर कहा-यही तो मैं इनसे कह रही हूँ।

रमानाथ रोना-धोना मच जाएगा और इसके साथ घर का परदा भी खुल जाएगा।

दयानाथ ने माथा सिकोड़कर कहा—उससे परदा रखने की जरूरत ही क्या! अपनी यथार्थ स्थिति को वह जितनी ही जल्दी समझ ले, उतना ही अच्छा।