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है, वकील साहब ने अच्छी संपत्ति छोड़ी था, मगर भाई-भतीजों ने हड़प ली।

देवीदीन–भैया कहते थे, अदालत करतीं तो सब मिल जाता; पर कहती हैं, मैं अदालत में झूठ न बोलूँगी। औरत बड़े ऊँचे विचार की है।

सहसा रामेश्वरी एक छोटे से शिशु को गोद में लिए हुए एक झोपड़े से निकली और बच्चे को दयानाथ की गोद में देती हुई देवीदीन से बोली-भैया,जरा चलकर रतन को देखो, जाने कैसी हुई जाती है। जोहरा और बहू, दोनों रो रही हैं! बच्चा न जाने कहाँ रह गए! देवीदीन ने दयानाथ से कहा—चलो लाला, देखें।

रामेश्वरी बोली—यह जाकर क्या करेंगे, बीमार को देखकर तो इनकी नानी पहले ही मर जाती है।

देवीदीन ने रतन की कोठरी में जाकर देखा। रतन बाँस की एक खाट पर पड़ी थी। देह सूख गई थी। वह सूर्यमुखी का सा खिला हुआ चेहरा मुरझाकर पीला हो गया था। वह रंग, जिन्होंने चित्र को जीवन और स्पंदन प्रदान कर रखा था, उड़ गए थे, केवल आकार शेष रह गया था। वह श्रवण-प्रिय, प्राणप्रद, विकास और आह्लाद में डूबा हुआ संगीत मानो आकाश में विलीन हो गया था, केवल उसकी क्षीण उदास प्रतिध्वनि रह गई थी। जोहरा उसके ऊपर झुकी उसे करुण, विवश, कातर, निराश तथा तृष्णामय नजरों से देख रही थी। आज साल भर से उसने रतन की सेवा-सुश्रूषा में दिन को दिन और रात को रात न समझा था। रतन ने उसके साथ जो स्नेह किया था, उस अविश्वास और बहिष्कार के वातावरण में जिस खुले निःसंकोच भाव से उसके साथ बहनापा निभाया था, उसका एहसान वह और किस तरह मानती, जो सहानुभूति उसे जालपा से भी न मिली, वह रतन ने प्रदान की। दुःख और परिश्रम ने दोनों को मिला दिया, दोनों की आत्माएँ संयुक्त हो गई। यह घनिष्ठ स्नेह उसके लिए एक नया ही अनुभव था, जिसकी उसने कभी कल्पना भी न की थी। इस मौके में उसके वंचित हृदय ने पति-प्रेम और पुत्र-स्नेह दोनों ही पा लिया।

देवीदीन ने रतन के चेहरे की ओर सचिंत नजरों से देखा, तब उसकी नाड़ी हाथ में लेकर पूछा कितनी देर से नहीं बोली?

जालपा ने आँखें पोंछकर कहा—अभी तो बोलती थीं। एकाएक आँखें ऊपर चढ़ाई और बेहोश हो गईं। वैद्यजी को लेकर अभी तक नहीं आए?

देवीदीन ने कहा—इनकी दवा वैद्य के पास नहीं है। यह कहकर उसने थोड़ी सी राख ली, रतन के सिर पर हाथ फेरा, कुछ मुँह में बुदबुदाया और एक चुटकी राख उसके माथे पर लगा दी। तब पुकारा–रतन बेटी, आँखें खोलो।

रतन ने आँखें खोल दी और इधर-उधर सकपकाई हुई आँखों से देखकर बोली—मेरी मोटर आई थी न? कहाँ गया वह आदमी? उससे कह दो, थोड़ी देर के बाद लाए। जोहरा, आज मैं तुम्हें अपने बगीचे की सैर कराऊँगी। हम दोनों झूले पर बैठेंगी।

जोहरा फिर रोने लगी। जालपा भी आँसुओं के वेग को न रोक सकी। रतन एक क्षण तक छत की ओर देखती रही।