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(ओ३म्)
( सोरठा )
शङ्कर ! मान कुमंत्र, जननी ने विधवा जनी।
मैं अबला परतंत्र, विवश गर्भ-रण्डा बनी ॥
(रौला-छन्द)
( १ )
सत्य एक अखिलेश, और सब सपनासा है।
विधवा-दल का दुःख, भयानक अपनासा है।
मैं अपना अनुभूत, अमंगल दरसाती हूँ।
उच्च कुलों पर आज, अश्रु-विष बरसाती हूँ।
( २ )
जब से मुझको गर्भ, नरक में मिला बसेरा।
हा ! बालक नवजात, बना तबही वर मेरा ॥
दिया राँड कर जन्म, जिन्होंने मुझदुहिताको।
किया सुकर्म अनन्य, धन्य उन मातपिता को॥