पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/५६

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गर्भ-रण्डा-रहस्य । उचित चाह की बेलि, प्रेम-तरुपै चढ़ फूली। पूजन, पाठ बिसार, भजन भोजन में भूली ॥ (१६.) हा ! उमङ्ग-मद पान, लगा करने मन मेरा। मतवाला अवधूत, बना वरजा बहुतेरा ॥ छूट गये सब काम, काज घर के बाहर के। देख वसन्त-विकास, पद्य पढ़ती शङ्कर के 10 मैं अति व्यग्र उदास, अधीर निराश निहारी। करने लगी विचार, कुढ़ी कातर महतारी ।। मुझ को पास बुलाय, कृपा करुणा कर बोली। कमला चल के देख, अलौकिकब्रजकी होली।

  • दतविलम्बित

( १ ) नवलपत्र प्रसन खिले खरे । मन हरे तरु-पुञ्ज हरे हरे ॥ मुमन मे न सुगन्धि समायगी। पवन मे वन में भरजायगी ॥ ( २ ) म प गुजत पङ्कज-पुञ्ज में । मुखद कोकिल कुञ्जत कुञ्ज मे निधि मिली मधु मित्र उदार की। गठगई ठगई ठग-मार की ॥