पृष्ठ:गर्भ-रण्डा-रहस्य.djvu/७८

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साधु-वेश गर्भ-रण्डा-रहस्य । (२३५) जटिल अविद्यादर्श, निरक्षर, मायिक, मुण्डे। अन्ध अवैदिक शिष्य, मोहसागर गुरुगुण्डे ॥ वटमार, प्रसिद्ध विरक्त त्रिदण्डी। भोग, योग, यमदण्ड, विकल थे कुल पाखण्डी। (२३६) कामुक, क्रूर, कृतन, कपटमुनि, मिथ्यावादी। पिशुन, प्रपंची, पोच, प्रतारक, प्रेत, प्रमादी । अशुभारम्भ, असभ्य, अशिक्षित, असदाचारी। दुर्गति की झर झेल, रहे थे अधम अनारी ॥ (२३७) निर्दय, करुणा-हीन, बधिक, बाधक, हत्यारे । अनृत-साक्ष्य के स्रोत, सुता, सुत वेचन हारे॥ अति कुसीद* के ग्राह, बिसासी, घटबढ़ तोला। सब पै पावक-पिण्ड, बरसते थे जिमि ओला। (२३८) जो मदमत्त प्रजेश, कूट शासन करते थे। घोर अनीति पसार, प्रजा का धन हरते थे। उनको यम के दूत, कटाकट काट रहे थे । शोणित श्वान, शृगाल, यथारूचि चाट रहे थे।