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पृष्ठ:गल्प समुच्चय.djvu/१०८

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गल्प-समुच्चय

क्षण-भर में बादशाह ने खत पढ़ लिया। झपटे हुए सलीमा के महल में पहुँचे। प्यारी दुलहिन सलीमा ज़मीन में पड़ी है। आँखें ललाट पर चढ़ गई हैं। रंग कोयले के समान हो गया है। बादशाह से रहा न गया। उन्होंने घबराकर कहा––'हकीम' हकीम को बुलाओ! कई आदमी दौड़े।"

बादशाह का शब्द सुनकर सलीमा ने उनकी तरफ देखा, और धीमें स्वर में कहा––"ज़हे किस्मत!"

बादशाह ने नज़दीक बैठकर कहा––"सलीमा! बादशाह की बेगम होकर क्या तुम्हें यही लाज़िम था?"

सलीमा ने कष्ट से कहा––हुजूर मेरा कुसूर बहुत मामूली था"

बादशाह ने कड़े स्वर में कहा––"बदनसीब! शाही ज़नानख़ाने में मर्द को भेष बदलकर रखना मामूली कुसूर समझती है? कानों पर यक़ीन कभी न करता; मगर आँखों देखी को भी झूठ मान लूँ?"

जैसे हज़ारों बिच्छुओं के एक साथ डंक मारने से आदमी तड़पता है, उसी तरह तड़पकर सलीमा ने कहा––"क्या?"

बादशाह डरकर पीछे हट गए। उन्होंने कहा––"सच कहो, इस वक्त तुम खुदा की राह पर हो, यह जवान कौन था?"

सलीमा ने अकचकाकर पूछा––"कौन जवान?"

बादशाह ने गुस्से से कहा––"जिसे तुमने साक़ी बनाकर पास रक्खा था?"

सलीमा ने घबराकर कहा––"हैं! हैं क्या वह मर्द है?"