कह, अभी चलिए, नहीं तो वह आपही हकीम के यहाँ चली जायँगी।
मिरजाजी बड़ी दिलचस्पी बाजी खेल रहे थे, दो ही किस्तों में मिरसाहब को मात हुई जाती थी। झुँझलाकर बोले- क्या ऐसे दम लबों पर है? जरा सब्र नहीं होता?
मीर-अरे तो जाकर सुन हो आइए न। औरतें नाजुक मिज़ाज़ होती ही हैं।
मिरजा-जी हाँ, चला क्यों न जाऊँ! दो किस्तों में आपकी मात होती है।
मीर-जनाब इस भरोसे न रहियेगा। वह चाल सोची है कि आपके मुहरे धरे रहें और मात हो जाय; पर जाइये सुन आइए। क्यों खामख्वाह उनका दिल दुखाइएगा?
मिरजा इसी बात पर मात ही करके जाऊँगा।
मीर-मैं खोलूगा ही नहीं। आप जाकर सुन आइए।
मिरजा-अरे यार, जाना पड़ेगा हकीम के यहाँ। सिर-दर्द खाक नहीं है; मुझे परेशान करने का बहाना है।
मीर-कुछ ही हो, उनकी खातिर तो करनी ही पड़ेगी।
मिरजा-अच्छा, एक चाल और चल लूँ।
मीर-हरगिज़ नहीं, जब तक आप सुन न आवेंगे, मैं मुहरे में हाथ ही न लगाऊँगा।
मीरजा साहब मजबूर होकर अन्दर गये, तो बेगम साहबा ने त्यौरियाँ बदल कर; लेकिन कराहते हुए कहा-तुम्हें निगोड़ी शत-