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कामना-तरू


चन्दा को देखते ही क्षीण स्वर में बोला––बेटी...कुँअर!...इसके आगे वह कुछ न कह सका। प्राण निकल गए; पर इस एक शब्द––"कुँअर"––ने उसका आशय प्रगट कर दिया।

(४)

बीस वर्ष बीत गए! कुँअर कैद से न छूट सके।

यह एक पहाड़ी क़िला था। जहाँ तक निगाह जाती, पहाड़ियाँ ही नजर आतीं। क़िले में उन्हें कोई कष्ट न था। नौकर-चाकर, भोजन-वस्त्र, सैर-शिकार, किसी बात की कमी न थी; पर उस वियोगाग्नि को कौन शान्ति करता, जो नित्य कुँवर के हृदय में जला करती थी। जीवन में अब उनके लिए कोई आशा न थी, कोई प्रकाश न था। अगर कोई इच्छा थी, तो यही कि एक बार उस प्रेम-तीर्थ की यात्रा कर लें, जहाँ उन्हें वह सब कुछ मिला जो मनुष्य को मिल सकता है। हाँ, उनके मन में एक-मात्र यही अभिलाषा थी कि उस पवित्र-स्मृतियों से रंजित भूमि के दर्शन करके जोवन का उसी नदी के तट पर अन्त कर दे। वही नदी का किनारा, वही वृक्षों का कुञ्ज, वही चन्दा का छोटा-सा सुन्दर घर, उसकी आँख में फिरा करता, और वह पोधा, जिसे उन दोनों ने मिलकर सींचा था, उसमें तो मानो उसके प्राण ही बसते थे। क्या वह दिन भी आएगा, जब वह उस पौधे को हरी-हरी पत्तियों से लदा हुआ देखेगा। कौन जाने वह अब है भी या सूख गया। कौन अब उसको सोचता होगा! चन्दा इतने दिनों अविवाहिता थोड़े ही बैठी होगी। ऐसा संभव भी तो नहीं। उसे अब मेरी सुधि भी न