पृष्ठ:गल्प समुच्चय.djvu/१४०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
१२८
गल्प-समुच्चय


प्रकाश था, जिसके नीचे उन्होंने जीवन के सुखमय दिन काटे थे, जो उनकी कामनाओं का आगार और उनकी उपासना का मन्दिर था, अब उनकी अभिलाषाओं की भाँति भग्न हो गया था! झोंपड़े की भग्नावस्था मूक-भाषा में अपनी करुण-कथा सुना रही थी। कुँअर उसे देखते ही "चन्दा-चन्दा!" पुकारता हुआ दौड़ा। उसने उस रज को माथे पर मला, मानो किसी देवता की विभूति हो और उसकी टूटी हुई दीवारों से चिमटकर बड़ी देर तक रोता रहा। हाय रे अभिलाषा! यह रोने ही के लिये इतनी दूर से आया था? रोने ही की अभिलाषा इतने दिनों से उसे विकल कर रही थी; पर इस रोदन में कितना स्वर्गीय आनन्द था। क्या समस्त संसार का सुख इन आँसुओं की तुलना कर सकता था?

तब वह झोंपड़े से निकला। सामने मैदान में एक वृक्ष हरे-हरे नवीन पल्लवों को गोद में लिये, मानो उसका स्वागत करने को खड़ा था। यह वही पौधा है, जिसे आज से बीस वर्ष पहले दोनों ने आरोपित किया था। कुँअर उन्मत्त की भाँति दौड़ा और जाकर उस वृक्ष से लिपट गया, मानो कोई पिता अपने मातृ-हीन पुत्र को छाती से लगाये हुए हो। यह उसी प्रेम की निशानी है, उसी अक्षय प्रेम की, जो इतने दिनों के बाद आज इतना विशाल हो गया है। कुँअर का हृदय ऐसा फूल उठा, मानों इस वृक्ष को अपने अन्दर रख लेगा, जिसमें उसे हवा का झोंका भी न लगे। उसके एक-एक पल्लव पर चन्दा की स्मृति बैठी हुई थी। पक्षियों का इतना रम्य संगीत क्या कभी उसने सुना था! उसके हाथों में