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रानी सारन्धा


सारन्धा—किसी को ढूँढ़ने गई होगी।

इमने में द्वार खुला और एक गठे हुए बदन के रूपवान् पुरुष ने भीतर प्रवेश किया। यह अनिरुद्ध था। उसके कपड़े भीगे हुए थे, और बदन पर कोई हथियार न था। शीतला चारपाई से उतर कर जमीन पर बैठ गई।

सारन्धा ने पूछा—भैया, यह कपड़े भीगे क्यों हैं?

अनिरुद्ध—नदी पैरकर आया हूँ।

सारन्धा—हथियार क्या हुए?

अनिरुद्ध—छिन गये।

सारन्धा—और साथ के आदमी?

अनिरुद्ध—सबने वीर गति पाई।

शीतला ने दबी ज़बान से कहा—"ईश्वर ने ही कुशल किया..." मगर सारन्धा के तीवरों पर बल पड़ गये और मुखमण्डल गर्व से सतेज हो गया। बोली "भैया, तुमने कुल की मर्यादा खो दी। ऐसा कभी न हुआ था।"

सारन्धा भाई पर जान देती थी। उसके मुंह से वह धिक्कार सुनकर अनिरुद्ध लज्जा और खेद से विकल हो गया। वह वीराग्नि जिसे क्षण भर के लिये अनुराग ने दबा दिया था, फिर ज्वलन्त हो गई। वह उल्टे पांव लौटा और यह कहकर बाहर चला गया कि "सारन्धा, तुमने मुझे सदैव के लिये सचेत कर दिया। यह बात मुझे कभी न भुलेगी।"

अँधेरी रात थी। आकाश मण्डल में तारों का प्रकाश बहुत