होने लगीं। शाहज़ादा मुराद और मुहीउद्दीन अपने-अपने दल सजाकर दक्खिन से चले। वर्षा के दिन थे। उर्बरा भूमि रंग-बिरंग के रूप भरकर अपने सौन्दर्य को दिखाती थी।
मुराद और मुहीउद्दीन उमंगों से भरे हुए कदम बढ़ाते चले आते थे। यहाँ तक कि वे धौलपुर के निकट चम्बल के तट पर आ पहुँचे; परन्तु यहाँ उन्होने बादशाही सेना को अपने शुभागमन के निमित्त तैयार पाया।
शाहज़ादे अब बड़ी चिन्ता में पड़े। सामने अगम्य नदी लहर मार रही थी, लोभ से भी अधिक विस्तारवाली। घाट पर लोहे की दीवार खड़ी थी, किसी योगी के त्याग के सहश सुढ़। विवश होकर चम्पतराय के पास सँदेशा भेजा कि खुदा के लिए आकर हमारी डूबती हुई नाव को पार लगाइये।
राजा ने भवन में जाकर सारन्धा से पूछा—इसका क्या उत्तर दूँ।
सारन्धा—आपको मदद करनी होगी।
चम्पतराय—उनकी मदद करना दाराशिकोह से वैर लेना है।
सारन्धा—यह सत्य है; परन्तु हाथ फैलाने की मर्यादा भी तो निभानी चाहिये।
चम्पतराय—प्रिये! तुमने सोचकर जवाब नहीं दिया।
सारन्धा—प्राणनाथ! मैं अच्छी तरह जानती हूँ कि यह मार्ग कठिन है और हमें अपने योद्धाओं का रक्त पानी के समान बहाना पड़ेगा; परन्तु हम अपना रक्त बहायेंगे, और चम्बल की लहरों