पृष्ठ:गल्प समुच्चय.djvu/१५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
१४६
गल्प-समुच्चय

राजा को देखते ही बुन्देलों की हिम्मत बँध गई। शाहजादा की सेना ने भी 'अल्लाहो-अकबर' की ध्वनि के साथ धावा किया। बादशाही सेना में हलचल पड़ गई। उनकी पंक्तियाँ छिन्न-भिन्न हो गई, हाथों-हाथ लड़ाई होने लगी, यहाँ तक कि शाम हो गई। रण-भूमि रुधिर से लाल हो गई और आकाश में अँधेरा हो गया।घमसान की मार हो रही। बादशाही सेना शाहजादों को दबाये आती थी। अकस्मात् पच्छिम से फिर बुन्देलों की एक लहर उठी और इस वेग से बादशाही-सेना को पुश्त पर टकराई कि उसके कदम उखड़ गये। जीता हुआ मैदान हाथ से निकल गया। लोगों को कौतूहल था कि यह दैवी सहायता कहाँ से आई। सरल स्वभाव के लोगों की धारणा थी कि यह शतह के फरिश्ते हैं, शाहज़ादों की मदद के लिए आये हैं; परन्तु जब राजा चम्पतराय निकट गये, तो सारन्धा ने घोड़े से उतरकर उनके पद पर सिर झुका दिया। राजा को असीम आनन्द हुआ। यह सारन्धा थी।

समर-भूमि का दृश्य इस समय अत्यन्त दु:खमय था। थोड़ी देर पहले जहाँ सजे हुए वीरों के दल थे, वहाँ अब बे-जान लाशें फड़क रही थीं। मनुष्य ने अपने स्वार्थ के लिये आदि से ही भाइयों की हत्या की है।

अब विजयी सेना लूट पर टूटी। पहले मर्द-मर्दों से लड़ते थे अब वे मुर्दो से लड़ रहे थे। वह वीरता और पराक्रम का चित्र था, यह नीचता और दुर्बलता की ग्लानि-प्रद तसवीर थी। उस समय मनुष्य पशु बना हुआ था, अब वह पशु से भी बढ़ गया था।