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रानी सारन्धा


सारन्धा—लेकिन यहाँ रहकर हम उनकी कुछ मदद भी तो नहीं कर सकते।

"राजा उनके साथ प्राण तो दे सकते हैं? मैं उनकी रक्षा में अपनी जान लड़ा दूँगा। उनके लिये बादशाही सेना की खुशामद करूँगा। कारावास की कठिनाइयाँ सहूँगा; किन्तु इस संकट में उन्हें छोड़ नहीं सकता।"

सारन्धा ने लज्जित होकर सिर झुका लिया और सोचने लगी——

निस्सन्देह अपने प्रिय साथियों को आग को आंच में छोड़कर अपनी जान बचाना घोर नीचता है। मैं ऐसो स्वार्थांध क्यों होगई हूँ; लेकिन फिर एकाएक विचार उत्पन्न हुआ। बोली-यदि आपको विश्वास हो जाय, कि इन आदमियों के साथ कोई अन्याय न किया जायगा, तब तो आपको चलने में कोई बाधा न होगी?

राजा—(सोचकर) कौन विश्वास दिलायेगा?

सारन्धा—बादशाह के सेनापति का प्रतिज्ञापत्र ।

राजा—हाँ, तब मैं सानन्द चलूँगा ।

सारन्धा विचार-सागर में डूबी। बादशाह के सेनापति से क्योंकर यह प्रतिज्ञा कराऊँ? कौन यह प्रस्ताव लेकर वहाँ जायगा और वे निर्दयी ऐसी प्रतिज्ञा करने ही क्यों लगे। उन्हें तो अपनी विजय की पूरी आशा है। मेरे यहाँ ऐसा नीति-कुशल, वाक्पटु, चतुर कौन है, जो इस दुस्तर कार्य को सिद्ध करे। छत्रसाल चाहे तो कर सकता है। उसमें ये सब गुण मौजूद हैं।

इस तरह मन में निश्चित करके रानी छत्रसाल को बुलाया