पृष्ठ:गल्प समुच्चय.djvu/१८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
१७१
आत्माराम


गया। महादेव प्रफुल्लित होकर दौड़ा और पिंजरे को उठा कर बोला—आओ आत्माराम, तुमने कष्ट तो बहुत दिया; पर मेरा जीवन भी सुफल कर दिया। अब तुम्हें चाँदी के पिंजरे में रक्खूँगा और सोने से मढ़ दूँगा-उसके रोम-रोम से परमात्मा के गुणानुवाद की ध्वनि निकलने लगी। प्रभु तुम कितने दयावान हो, यह तुम्हारा असीम वात्सल्य है, नहीं तो मुझ-जैसा पापी पतित प्राणी, कब इस कृपा के योग्य था। इन पवित्र भावों से उसकी आत्मा विह्वल हो गई, वह अनुरक्त होकर बोल उठा—

सत्त गुरुदत्त शिवदत्तदाता}}
राम के चरण में चित्त लागा।

उसने एक हाथ में पिंजरा लटकाया, बगल में कलशा दबाया और घर चला।

(५)

महादेव घर पहुँचा, तो अभी कुछ अँधेरा था। रास्ते में एक कुत्ते के सिवाय और किसी से भेंट न हुई ओर कुत्ते को मोहरों से विशेष प्रेम नहीं होता। उसने कलशे को एक नाँद में छिपा दिया और उसे कोयले से अच्छी तरह ढक कर अपनी कोठरी में रख आया। जब दिन निकल आया, तो वह सीधे पुरोहित जी के घर जा पहुँचा पुरोहित जी पूजा पर बैठे सोच रहे थे-कल ही मुकदमे में की पेशी है और अभी तक हाथ में कौड़ी भी नहीं, जजमानों में कोई साँस भी नहीं लेता। इतने में महादेव ने पालागन किया।