परन्तु बच्चे की ताई श्रीमती रामेश्वरी को पति की यह चुहलबाज़ी अच्छी न लगी। वह तुनककर बोलीं—तुम्ही रेल! पर बैठकर जाओ, मुझे नहीं जाना है।
बाबू साहब ने रामेश्वरी की बात पर ध्यान नहीं दिया। बच्चे को उनकी गोद में बिठाने की चेष्टा करते हुए बोले—प्यार नहीं करोगी, तो फिर रेल में नहीं बिठावेगा।—क्यों रे मनोहर?
मनोहर ने ताऊ की बात का उत्तर नहीं दिया। उधर ताई ने मनोहर को अपनी गोद से ढकेल दिया। मनोहर नीचे गिर पड़ा। शरीर में चोट नहीं लगी; पर हृदय में चोट लगी। बालक रो पड़ा।
बाबू साहब ने बालक को गोद में उठा लिया, चुमकार-पुचकार कर चुप किया, और तत्पश्चात् उसे कुछ पैसे तथा रेलगाड़ी ला देने का वचन देकर छोड़ दिया। बालक मनोहर भय-पूर्ण दृष्टि से अपनी ताई की ओर ताकता हुआ उस स्थान से चला गया।
मनोहर के चले जाने पर बाबू रामजीदास रामेश्वरी से बोले—तुम्हारा यह कैसा व्यवहार है? बच्चे को ढकेल दिया! जो उसके चोट लग जाती, तो?
रामेश्वरी मुँह मटकाकर बोलीं—लग जाती, तो अच्छा होता। क्यों मेरी खोपड़ी पर लाद देते थे? आप ही तो उसे मेरे ऊपर डालते थे, और आप ही अब ऐसी बातें करते हैं।
बाबू साहब कुढ़कर बोले—इसी को खोपड़ी पर लादना कहते हैं।