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गल्प-समुच्चय

परीक्षा के दिन बहुत कम रह गये हैं। इसलिए सब ओर से मन हटाकर इसी ओर लगाना चाहिए। परीक्षा से निवृत्त होकर अपनी मब शक्तियाँ उधर लगावेंगे। मैं तुम्हारा साथ दूंगा।"

रामसुन्दर-भाई सतीश, मुझे तुम्हारा बहुत भरोसा है। पूर्ण आशा है कि यदि तुम-जैसे परोपकार-व्रती और देवोपम मित्र ने प्रयत्न किया, तो मेरा यह कार्य-जिसके कारण मेरी निद्रा और मेरी, भूख, दोनों नष्ट हो गई हैं-जरूर सिद्ध हो जायगा। मित्र, तुलसीदासजी ने ठीक ही कहा है-

'यद्यपि जग दारुण दुख नाना।
सबतें कठिन जाति-अपमाना।'

नाव धीरे-धीरे किनारे पर आ लगी और ये दोनों नवयुवक उससे उतर कर कालेज की ओर चल दिये।

( ४ )

सरला को माता को मरे दो वर्ष बीत गये। सरला निश्चिन्तता-पूर्वक डाक्टर-बाबू के यहाँ रहती है। उसको अपनी माता की याद आती है जरूर; पर डाक्टर और उसकी वृद्धा माता के सद्व्यवहार से उसको कोई कष्ट नहीं । बल्कि, यह कहना चाहिए कि कोई ऐसा सुख नहीं, जो उसको प्राप्त न हो। राजा-बाबू उसको अपनी ही पुत्री समझते हैं। उसने भी अपने गुणों से उसको खूब प्रसन्न कर रक्खा है।

राजा-बाबू ने दो वर्ष बाद उस लिफ़ाफे को खोला, जिसको पढ़ने की आज्ञा सरला की माता, मरते समय दे गई थी।