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गल्प-समुच्चय

उस परम आनन्द में योग देने के कारण उसका वह गम्भीर भाव अनेकांश में तिरोहित हो गया था और उसके मुख-मण्डल की शोभा आन्तरिक आनन्द की श्री से और भी मनोहर एवं प्रभामयी हो गई थी। सत्येन्द्र गुणसुन्दरी के गुणों पर मुग्ध थे ही और जैसा हमने पहले कहा है, वे उस पर विशेष रूप से स्नेहमयी श्रद्धा रखते थे! पर उस आनन्द से प्रफुल्ल वदन-कमल की जो अपूर्व शोभा उन्होंने उस आनन्द-अवसर पर देखो वह कुछ ओर ही प्रकार की थी, उसमें कोई ओर ही प्रकार का निरालापन था। उसे देखते ही उनके हृदय में एक ओर ही प्रकार को प्रवृत्ति जागृत हो उठी। अभी तक उनका जो स्नेह श्रद्धा के पवित्र शीतल सलिल से सिंचित होता था, वह अब दूसरी ही प्रकार के प्रवृत्ति प्रवाह में अवगाहन करने लगा। वात्सल्य शृङ्गार में परिणत हो गया।

तब तो सत्येन्द्र एक प्रकार से व्याकुल हो उठे। वे विद्वान थे, पण्डित थे और अब तक उनका जीवन सदाचार ही के साहचर्य में व्यतीत हुआ था। उन्होंने इस प्रवृत्ति को दबाने की चेष्टा की; पर वह उनमें दबी नहीं। वे गुणसुन्दरी को बार-बार देखने के लिये व्याकुल हो उठते और निरर्थक ही उसे अपने कमरे में किन्हीं कामों के बहाने बुलाकर रात-दिन में वे उसका दस-पाँच बार दर्शन कर लेते; पर इससे उन्हें शांति मिलना तो दूर, उनकी लालसा और भी तीव्र होती जाती। इधर सुशीला प्रसूतिकागार में थी और इसलिये गुणसुन्दरी को उनके कमरे में किसी-न-किसी काम के