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मुस्कान

प्रवृत्ति की प्रथम झलक थी और कभी उनका यह विचार स्थिर होता, कि वह मुस्कान उनकी प्रेम-भिक्षा के प्रति उपहासमयी उपेक्षा की प्रथम किरण थी। कभी वे सोचते, कि गुणसुन्दरी ने उस मधुर मुस्कान के द्वारा उनके प्रेम का अभिनन्दन किया था और कभी उनकी यह धारणा होती, कि उस अपूर्व संयमशीला रमणी ने उस मुस्कान के द्वारा उनके इस अनुचित साहस का तिरस्कार किया था। सत्येन्द्र निश्चित् रूप से उस रहस्यमयी मुस्कान का अर्थ समझने में कृतकार्य नहीं हो रहे थे। उनकी बुद्धि उद्भ्रान्त हो गई थी और उस उद्भ्रान्ति की संशय-स्वरूपा अग्नि को हृदय में धारण करके वे उस उद्यान में घूम रहे थे।

सहसा उन्हें एक ओर से गाने की ध्वनि सुनाई दी। उन्होंने कण्ठ-स्वर से जान लिया, कि गुणसुन्दरी ही गुनगुना रही है। सत्येन्द्र को यह जानकर और भी हर्ष हुआ, कि गुणसुन्दरी गान-विद्या में भी अधिकार रखती है। हृदय की प्रबल प्रेरणा से परिचालित होकर वे उसी ओर को, धीरे-धीरे उस मधुर गान को सुनते-सुनते अग्रसर होने लगे, ठीक उसी तरह जैसे मृगी वीणास्वर में आकृष्ट होकर उसी ओर को, चलने लगती है। गुणसुन्दरी का स्वर ही अभी तक सत्येन्द्र को सुनाई पड़ता था—अब स्पष्ट‌ रूप से गान भी सुनाई पड़ने लगा। गुणसुन्दरी गा रही

रे मन! भूल्यो फिरै जग बीच।
कुसुम कुसुम पै अटकत डौले
नीचे लखै नहिं मीच। रे मन०