पृष्ठ:गल्प समुच्चय.djvu/२६६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
२५४
गल्प-समुच्चय

कारण अपनी वृद्धा माता की और भी स्नेहपात्री हो गई थी। उस वृद्ध वयस में उन्होंने गृहस्थी का सारा भार अपने कन्धों से उतारकर गुणसुन्दरी के सिर पर डाल दिया था। गुणसुन्दरी अपने पिता की गृहस्थी की परिचालिका थी—छोटे-से-छोटे काम से लेकर बड़े-से-बड़े काम का भार उसी पर था। उसका व्यथा-मय जीवन निरन्तर कर्म के अनुष्ठान से बड़ी सरलता से व्यतीत होता जाता था—घर की एकमात्र अधीश्वरी होने के कारण ग्लानि की क्षीण रेखा तक उसके हृदय में उप्तन्न नहीं होने पाती थी। उसकी माता तो एक ओर बैठी भगवती का भजन करती थी। भौजाई इत्यादि गुणसुन्दरी की अधीनता में सुखी ही रहती थीं—उनकी भी चिन्ता कम हो जाती थी। यद्यपि सत्येन्द्र ने बहुत कुछ कहा सुना; पर हेमचन्द्र, गुणसुन्दरी को और थोड़े दिनों के लिए छोड़ जाने पर किसी भाँति भी राजी न हुए। सत्येन्द्र कुछ अप्रसन्न भी हो गये; पर हेमचन्द्र ने बड़ी विनम्र भाषा में उनसे क्षमा माँग ली। उन्होंने कहा कि माताजी की अवस्था वृद्ध है, उनका शरीर बड़ा दुर्बल हो रहा है, गृहस्थी के झंझट उनसे सँभाले सँभलते नहीं, इधर उनकी आँखों में परवाल हो गये हैं, मेरी स्त्री भी वहाँ नहीं है, मैके में है, उसकी भौजाई के लड़का इत्यादि होने वाला है; अतः वह भी नहीं आ सकती; इसीलिये माता ने आपसे अनुरोध किया है कि आप गुणसुन्दरी को और अधिक न रोकें। तब क्या करें? सत्येन्द्र विवश थे। उनके हृदय में एक तुमुल संग्राम हो रहा था—उनके मस्तिष्क में एक प्रबल अग्नि हाहाकर कर रही