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उमा

बिहारी से विवाह करके रतन की अवहेलना की—उसकी इस अनुदारता से रतन को दुःख होना स्वाभाविक था; किन्तु वे विवश थे, क्या करते? एक बाल्य-काल का मित्र था, दूसरी वह थी, जिसके सम्मुख हृदय की बात प्रकट करना, साहस का काम था। सिवा चुप रहने के कोई उपाय न था। उमा का विवाह हो जाने के बाद से उनका यह प्रयत्न रहता कि मन का भाव प्रकट न होने पावे। इसी सद्भाव से प्रेरित होकर वे उमा के यहाँ सप्ताह में दो बार अवश्य जाया करते; परन्तु उनकी कृतिम उदासीनता, आन्तरिक ज्वाला शान्त करने में असमर्थ थी। उनके हृदय में घोर संग्राम छिड़ा रहता। वे अपनी इच्छाओं और उमङ्गों को कुचल डालना चाहते थे; किन्तु सोने का ढेर सामने पाकर उसकी ओर से मुँह फेर लेना विरले ही का काम है। वह संयम और मनोविराग की अलौकिक अवस्था है, जब मन इच्छाओं की बेड़ी से मुक्त हो जाता है। रतन के हृदय में ईर्ष्या अंकुरित हुई। एक आफ़त से जान छुड़ाने गये थे, दूसरी मुसीबत गले पड़ी। उन्हें अपनी ग़लती मालूम हुई, उमा के यहाँ जाना क्रमशः कम कर दिया—हफ्ते में दो बार से हफ्ते में एक बार, हफ्ते में एक बार से पन्द्रह दिन में एक मर्तबा, और फिर महीने में एक दफ़ा।

रतन के दिल में आया कि टाल जायँ। बुद्धि ने कहा—जाना ठीक नहीं। ऐसी जगह जाने से क्या फ़ायदा, जहाँ सिर-दर्द के सिवा कुछ हाथ न लगे; लेकिन मन कब मानता है? उन्होंने मन में फिर सोचा, यह अनहोनी बात! यह स्वर्ण-अवसर? उमा का