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गल्प-समुच्चय

उमा निरुत्तर हो गई। रतन की बात माननी ही पड़ी। खाना शुरू हुआ। खाने के साथ-साथ बातें भी होती जाती थीं। रतन को खाने में आज तक कभी ऐसा स्वाद न मिला था। एक-एक चीज़ की प्रशंसा कर रहे थे। रसोइये ने ख़ीर की दो तश्तरियाँ लाकर रख दी और कहा—यह हुजूर की बनाई हुई चीज़ है। खीर बहुत अच्छी बनी थी, रतन को कोई चीज़ वैसी स्वादिष्ट न मालूम हुई। बार-बार जी चाहता था कि तारीफ़ करें; किन्तु मुख से एक शब्द भी न निकल सका। कोई और समय होता, तो उमा इस चुप का मतलब कुछ और समझती; परन्तु अब उसे स्वभाव का काफ़ी ज्ञान हो चुका था। प्रशंसा के लिये शब्दों की आवश्यकता न थी।

भोजन के उपरान्त दोनों टहलते हुए बाग़ में चले गये। आकाश के नीले परदे से झाँकता हुआ द्वितीया का चन्द्रमा ऐसा जान पड़ता था, मानो किसी सुन्दरी के नीले घूँघट से उसकी ठुड्डी झांक रही हो। असंख्य तारे साड़ी में टँके हुए सितारे थे।

उमा ने कहा—वह समय याद है जब हम, बिहारी और तुम घण्टों आकाश की शोभा देखा करते थे?

हृदय से निकली हुई ठण्डी साँस दबाते हुए रतन ने कहा—क्या वे बातें भूल सकती हैं?

"हम सब फूल चुनते और हार गूंथते थे।"

"हाँ, हम जब हार बनाने की कोशिश करते, कभी फूल चुक जाता, कभी धागा टूट जाता—तुम हस पड़तीं। एक बार बड़ी