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संन्यासी


था जो आज धूल में मिला हुआ है। इसके हृदय में धड़कन है, नेत्रों में त्रास है, मुख पर उदासीनता है। वह चञ्चलता जो बच्चों का विशेष गुण है, इसमें नाम को नहीं। वह हठ जो बालकों की सुन्दरता है, इससे बिदा हो चुकी है। यह बाल्यावस्था ही में वृद्धों की नाई गम्भीर बन गया है। इस अनर्थ का उत्तरदायित्व मेरे सिर है, जो इसे यहाँ छोड़ गया, नहीं तो इस दशा को क्यों पहुँचता।" इन्हों विचारों में झपकी आ गई, तो क्या देखते हैं कि वही हृषीकेश का पर्वत है, वही कन्दरा। उसमें देवी को मूर्ति है और वे उसके सम्मुख खड़े रो-रो कर कह रहे हैं-"माता, दो वर्ष व्यतीत हो गये, अभी तक शान्ति नहीं मिली। क्या यह जीवन रोने ही में बीत जायगा?"

एकाएक ऐसा प्रतीत हुआ जैसे पत्थर को मूर्ति के होंठ हिलते हैं। स्वामी विद्यानन्द ने अपने कान उधर लगा दिये। आवाज़ आई-"तू क्या माँगता है, यश?"

"नहीं, मुझे उसकी आवश्यकता नहीं।"

"तो फिर जगत्-दिखावा क्यों करता है?"

"मुझे शान्ति चाहिए।"

"शान्ति के लिए सेवा-मार्ग को आवश्यकता है। पर्वत छोड़ और नगर में जा। जहाँ दुःखी जन रहते हैं, उनके दुःख दूर कर। किसी के घाव पर फाहा रख, किसी के टूटे हुए मन को धीरज बँधा; परन्तु यह रास्ता भी तेरे लिए उपयुक्त नहीं। तेरा पुत्र है,तू उसकी सेवा कर। तेरे मन को शान्ति प्राप्त होगी।"