पृष्ठ:गल्प समुच्चय.djvu/८०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
६८
गल्प-समुच्चय


उनकी बातों ने मेरे सुख-मय जीवन को और भी सुख-मय बना दिया। वे मुझसे कभी रुष्ट न होते थे, न कभी बुरा-भला कहते थे। वे इसे मनुष्यत्व से गिरा हुआ समझते थे। सोचते थे, यह मन में क्या कहेगी। मेरे नेत्रों का अभाव मेरे लिये दैवी सुख का कारण बन गया, मेरा काम स्वयं करते थे। मैं रोकती, तो कहते—इससे मुझे आनन्द मिलता है। तुम कुछ ख्याल न करो। संसार की समस्त स्त्रियाँ अपने पतियों की सेवा करती हैं। यदि एक पति अपनी स्त्री का थोड़ा-सा काम कर देगा, तो संसार में प्रलय न आ जायगा। उनके पास रुपया था, कई नौकर रक्खे हुए थे; परन्तु वे ज़नाने में न आ सकते थे। रोटी बनाने के लिए एक मिसरानी थी मेरा जी बहलाने के लिये एक और स्त्री; परन्तु फिर भी कई काम ऐसे होते हैं जो गृहिणी को स्वयं करने पड़ते हैं। पर मैं अन्धी थी, इसलिए ऐसे काम वे स्वयं करते थे, और उस समय ऐसे प्रसन्न होते थे, जैसे बच्चे को बढ़िया खिलौने मिल गये हों। उनकी दिलजोइयों ने मुझे उनकी पुजारिन बना दिया। मैं उनकी पूजा करने लगी। सोचती थी, ऐसे मनुष्य भी संसार में थोड़े होंगे। उन्हें मेरी क्या परवा है। चाहें, तो मुझ जैसी बीसियों खरीद लें। यह उनके लिए कुछ भी कठिन नहीं; परन्तु वे फिर भी मुझे चाहते हैं, मानो मैं किसी देश की राजकुमारी हूँ। मैं पहले उनसे प्रेम करती थी, फिर उनकी पूजा करने लगी। प्रेम ने श्रद्धा का रूप धारण कर लिया। मेरा जीवन न था, सुखमय स्वप्न था, जो भय, अधीरता, अशान्ति और दुःख से कभी नष्ट