थी, उसका स्थान आशामयी अशान्ति ने ले लिया था। मस्तिष्क में सहस्रों विचार आ रहे थे। उनके, पुत्र के, पृथ्वी-आकाश के, फूलों के, सूरज के, चन्द्रमा-तारों के, रूप के विषय में अनुमान के घोड़े दौड़ा रही थी। सोचती थी, आँख खुल जायँ, तो एक मन्दिर बनवा दूँ, तीर्थयात्रा करूँ और अनाथालयों के नाम चन्दा बाँध दूँ। माता-पिता सुनेंगे, तो दंग रह जायँगे, सहेलियाँ बधाई देने आयँगी; परन्तु इस खुशी में एक बड़ा भोज देना आवश्यक हो जायगा। उनकी कितनी उत्कण्ठा है, कि शाम को मुझे साथ लेकर बग्घी पर निकलें; परन्तु नेत्रों का दोष रास्ता रोक लेता है। यदि डाक्टर का परिश्रम सफल हो जाय, तो हाथों के कड़े उतार दूँ और उसकी पत्नी को बुलाकर रेशमी जोड़ा दूँ।
मैं डाक्टर के आने की इस तरह प्रतीक्षा करने लगी, जैसे उसके आने के साथ ही मेरी आँखें खुल जायँगी। आशा ने मस्तिष्क को उलझन में डाल दिया था। एकाएक दरवाजे पर किसी मोटर के आकर रुकने की आवाज़ आई। मेरी देह काँपने लगी। निराशा के विचार ने गला पकड़ लिया। इतने में वे अन्दर आ गये और बोले––"डाक्टर साहब आ गये हैं।”
मैंने साड़ी को सिर पर ठीक कर लिया और सँभलकर हो बैठी; परन्तु हृदय ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था। डाक्टर साहब मेरी आँखों को देखने लगे। कुछ देर सन्नाटा रहा और तब उन्होंने किलकारी मारकर कहा––"मुझे पूरा निश्चय है, कि तुम्हारी आँखें बन जायँगी।'