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गल्प-समुच्चय


झूम रही थी। सलीमा का रंग भी मोती के समान था। उसकी देह की गठन निराली थी। संगमर्मर के समान पैरों में ज़री के काम के जूते पड़े थे, जिन पर दो हीरे धक-धक् चमक रहे थे।

कमरे में एक क़ीमती ईरानी कालीन का फर्श बिछा हुआ था, जो पैर रखते ही हाथ-भर नीचे धंस जाता था। सुगन्धित मसालों से बने हुए शमादान जल रहे थे। कमरे में चार पूरे क़द के आईने लगे थे। संगमर्मर के आधारों पर, सोने-चाँदी के फूलदानों में, ताजे फूलों के गुलदस्ते रक्खे थे। दीवारों और दरवाजों पर चतुराई से गूथी हुई नागकेसर और चम्पे की मालायें झूम रही थीं, जिनकी सुगन्ध से कमरा महक रहा था। कमरे में अनगिनत बहुमूल्य कारीगरी की देश-विदेश की वस्तुएँ क़रीने से सजी हुई थीं।

बादशाह दो दिन से शिकार को गये थे। आज इतनी रात गई, अभी तक नहीं आये। सलीमा चाँदनी दूर तक आँखें बिछाये सवारों की गर्द देखती रही। आखिर उससे स्थिर न रहा गया। वह खिड़की से उठकर, अनमनी-सी होकर मसनद पर आ बैठी। उम्र और चिन्ता की गर्मी जब उससे सहन न हुई, तब उसने अपनी चिकन की ओढ़नी भी उतार फेंकी और आप-ही-आप झूँझलाकर बोली––"कुछ भी अच्छा नहीं लगता। अब क्या करूँ?" इसके बाद उसने पास रक्खी बीन उठा ली। दो-चार अँगुली चलाई; मगर स्वर न मिला! उसने भुनभुनाकर कहा––"मर्दों की तरह यह भी मेरे वश में नहीं है।" सलीमा ने उकताकर उसे रखकर दस्तक दी। एक बाँदी दस्तबस्ता आ हाज़िर हुई।