रास्ते पर पड़ती थी, जो शहर को जाता था। ३८ रेजिमेंट
के जो बचे हुए सिपाही थे, वे बुर्ज के सीधे हाथ की तरफ़
जमा किए गए। जितने अँगरेज़ स्त्री-बच्चे वहाँ थे, सब आकर
बुर्ज के अंदर जमा हो गए। और, थोड़ी देर बाद बहुत-
से नगर-निवासी भी आ गए। अब हर तरफ़ से उन अँगरेज़ों
की, जो शहर में रहते थे, क़त्ले-आम को खबरें आने लगीं।
यह भी मालूम हुआ कि जितनी फ़ौज मेग़जीन और दूसरे
स्थानों पर तैनात थी, सबने सरकारी काम से इनकार कर
दिया, यानी लड़ने से मुँह मोड़ लिया।
जब फ़ौज के विद्रोही हो जाने का विश्वास हो गया और
हर तरफ़ विद्रोह और क़त्ले-आम का बाज़ार गर्म होने लगा,
तो साहब ब्रगेडियर ने साँड़नी सवार के ज़रिए मेरठ के हाकिमों
को चिट्ठी लिखी, और लगभग दस बजे हुक्म दिया कि
बज़रिए तार इस विद्रोह की ख़बर अंबाले भेजी जाय। इसके
बाद उपर्युक्त अफ़सर ने तमाम सिपाहियों को जमा करके उनसे
पूछा कि आख़िर तुम्हें क्या उज़ है, और तुम क्या चाहते हो?
तो कुछ सिपाहियों ने कारतूस का उज़ किया। इस पर
साहब ने उन्हें समझाया और विश्वास दिलाया कि सरकार
का इरादा यह कदापि नहीं कि वह किसी तरह तुम्हारे धर्म
में दखल दे। और, फ़ौज को हरगिज़ ऐसे कारतूस नहीं दिए
जायँगे, जिनसे किसी क़िस्म का मज़हब को नुक़सान पहुँचे।
बातचीत चल ही रही थी और अफ़सर महोदय बराबर