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जाते; मगर यहाँ तो सिर पर शामत सवार थी। इसकी क्या जरूरत थी कि जालपा मुहल्ले भर की औरतों को जमा कर के रोज सैर को जाती? सैकड़ों रुपये तो ताँगावाला ले गया होगा; मगर यहाँ तो उस पर रोब जमाने की पड़ी हुई थी! सारा बाजार जान जाये, कि लाला निरे लफंगे हैं पर अपनी स्त्री न जानने पाये! वाह री बुद्धि! दरवाजे के लिये परदों की क्या जरूरत थी? दो लैम्प क्यों लाया, नयी निवाड़ लेकर चारपाइयाँ क्यों बुनवायीं? उसने रास्ते ही में उन सारे खर्चों का हिसाब तैयार कर लिया जिन्हें उसको हैसियत के आदमी को टालना चाहिए। आदमी जब तक स्वस्थ रहता है, उसे इसकी चिन्ता नहीं रहती कि वह क्या खाता है, कितना ख़ाता है, लेकिन जब कोई विकार उत्पन्न हो जाता है तब उसे याद आती है कि कल मैंने पकोड़ियां खायी थीं। विजय बहिर्मुखी होती है, पराजय अन्तर्मुखी।

जालपा ने पूछा-कहाँ चले गये थे, बड़ी देर लगा दी?

रमा॰-तुम्हारे कारण रतन के बँगले पर जाना पड़ा। तुमने सब रुपये उठाकर देदिए; उसमें दो सौ मेरे भी थे।

जालपा-तो मुझे क्या मालूम था। तुमने कहा भी तो न था। मगर उनके पास से रुपये कहीं जा नहीं सकते, वह आप ही भेज देंगी।

रमा॰-माना; पर सरकारी रक़म तो कल दाखिल करनी पड़ेगी।

जालपा-कल मुझसे दो सौ रुपये ले लेना, मेरे पास हैं.

रमा को विश्वास न आया। बोला-कहीं हों न तुम्हारे पास! इतने रुपये कहाँ से आये?

जालपा-तुम्हें इससे क्या मतलब, मैं तो दो सौ रुपये देने को कहती हूँ।

रमा का चेहरा खिल उठा। कुछ-कुछ आशा बँधी। दो सौ रुपये यह दे दे, दो सौ रतन से ले लूँगा, सौ रुपये मेरे पास हैं ही, तो कुल तीन सौ की कमी रह जायगी; मगर यह तीन सौ। रुपये कहाँ से आयेंगे? ऐसा कोई नज़र न आता था, जिससे इतने रुपये मिलने की आशा की जा सके। हाँ, अगर रतन सब रुपये दे दे तो बिगड़ी बात बन जाये। आशा का यही एक आधार रह गया था।

जब वह खाना खाकर लेटा, तो जालपा ने कहा-आज किस सोच में पड़े हो?

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