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रमा ने जालपा के गले से सिमटकर कहा——उससे कहीं अधिक, लाख गुना!

जालपा ने हँसकर कहा——झूट बिलकुल झूठ ! सोलहो आना झूठ !

रमा——यह तुम्हारी जबरदस्ती है। आखिर ऐसा तुम्हें कैसे जान पड़ा? मालपा——आँखों से देखती हूँ, और कैसे जान पड़ा? तुमने मेरे पास बैठने की कसम खा ली है। देखो, तुम गुम सुम रहते हो। मुझसे प्रेम होता तो मुझपर विश्वास भी होता। बिना विश्वास के प्रेम हो ही कैसे सकता है? जिससे तुम अपनी बुरी-से-बुरी बात न कह सको, उससे तुम प्रेम नहीं कर सकते। हाँ, उस के साथ विहार कर सकते हो, उसी तरह जैसे कोई वेश्या के पास जाता है। वेश्या के पास लोग आनन्द उठाने ही जाते हैं, कोई उससे मन की बात कहने नहीं जाता। हमारी भी वही दशा है। बोलो, है या नहीं? आँखें क्यों छिपाते हो? क्या मैं देखती नहीं कि तुम बाहर से घबड़ाये हुए आते हो? बातें करते समय देखती हूँ, तुम्हारा मन किसी और तरफ़ रहता है। भोजन में भी देखती हूँ, तुम्हें कोई आनन्द नहीं आता। दाल गाड़ी है या पतली, शाक कम है या ज्यादा, चावल में कमी है या पक गये हैं, इस तरफ तुम्हारी निगाह नहीं जाती। की तरह भोजन करते हो और जल्दी से भागते हो। मैं यह सब क्या नहीं देखती? मुझे देखना न चाहिए ! मैं बिलासिनी हूँ. इस रूप में तुम मुझे देखते हो। मेरा काम है-विहार करना, विलास करना, आनन्द करना। मुझे तुम्हारी चिताओं ने मतलब? मगर ईश्वर ने वेसा हृदय नहीं दिया। क्या करूँ? मैं समझती हूँ जब मुझे जीवन ही व्यतीत करना है, जब मैं केवल तुम्हारे मनोरंजन की ही वस्तु हूँ, तो क्यों अपनी जान विपत्ति में डालूँ?

जालपा ने रमा से कभी दिल खोलकर बात न की थी। वह इतनी विचारशील है, उसने अनुमान ही न किया था। वह उसे वास्तव में रमणी ही समझता था। अन्य पुरुषों की भांति यह भी पत्नी को इसी रूप में देखता था। वह उसके यौवन पर मुन्ध था। उसकी आत्मा का स्वरूप देखने की चेष्टा कभी न की। शायद यह समझता था, इसमें आत्मा है ही नहीं। अगर वह रूप लावण्य की राशि न होती, तो कदाचित् वह उससे बोलना भी पसन्द न करता। उसका सारा आकर्षण, उसकी सारी आसक्ति केवल उसके रूप पर

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