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टिकट बाबु को किराया देकर रमा सोचने लगा——यह बूढ़ा कितना सरल, कितना परोपकारी, कितना निष्कपट जीव है। जो लोग सभ्य कह- लाते है, उनमें कितने आदमी ऐसे निकलेंगे, जो बिना जान पहचान किसी यात्री को उबार लें। गाड़ी के और मुसाफिर भी बूढ़े को श्रद्धा की दृष्टि से देखने लगे।

रमा को बूढ़े की बातों से मालूम हुआ कि वह जाति का खटिक है; कलकते में उसकी शाक-भाजी की दुकान है। रहनेवाला तो बिहार का है; पर चालीस साल से कलकत्ते ही में रोज़गार कर रहा है। देवीदीन नाम है। बहुत दिनों से तीर्थयात्रा की इच्छा थी, बद्रीनाथ की यात्रा करके लौटा जा रहा है।

रमा ने आश्चर्य से पुछा——तुम बद्रीनाथ की यात्रा कर आये? वहाँ तो पहाड़ों की बड़ी-बड़ी चढाइयाँ हैं।

देवी०——भगवान् की दया होती है तो सब कुछ हो जाता है, बाबूजी ! उनकी दया चाहिए।

रमा——तुम्हारे बाल-बच्चे कलकत्ते ही में होंगे।

देवीदीन ने रूखी हँसी हंसकर कहा——बाल-बच्चे तो सब भगवान् के घर गये। चार बेटे थे। दो का ब्याह हो गया था। सब चल दिये। मैं बैठा हुआ हूँ। मुझी से तो सब पैदा हुए थे ! अपने बोये हुए बीज को किसान ही तो काटता है।

यह कहकर वह फिर हंसा। जरा देर बाद बोला—— बुढिया अभी जीती है। देखें, हम दोनों में पहले कौन चलता है। वह कहती है, पहले मैं जाऊँगी, मैं कहता हूँ पहले मैं जाऊँगा। देखो, किसकी टेक रहती है। बन पड़ा तो तुम्हें दिखलाऊँगा ! अब भी गहने पहनती है। सोने की बालियाँ और सोने की हंसली पहने दुकान पर बैठी रहती है ! जब कहा कि चल तीर्थ कर आयें, तो बोली——तुम्हारे तीर्थ के लिए दूकान मिट्टी में मिला दूँ? यह है जिन्दगानी का हाल। आज मरे कि कल मरे; मगर दूकान न छोड़ेगी। न कोई आगे न कोई पीछे, न रोनेवाला न कोई हंसने वाला; मगर माया बनी हुई है। अब भी एक-न-एक गहना बनवाती ही रहती है। जाने कब उसका पेट भरेगा। सब घरों का यही हाल है। जहाँ देखो-हाय गहने! गहने के पीछे

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