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पढ़ा करता था। जब से रमा आ गया है, बुड्ढे को अंग्रेज़ी पढ़ने का शौक हो गया है। सवेरे ही प्राइमर लेकर बैठ जाता है और नौ-दस बजे तक अक्षर पढ़ता रहता है। बीच-बीच में लतीफे भी होते जाते हैं, जिनका देवीदीन के पास अक्षय भंडार है। मगर जग्गी को रमा का शासन जमाना अच्छा नहीं लगता। वह उसे अपना मुनीम तो बनाये हुए है— हिसाब-किताब उसी से लिखवाती है, पर इतने से काम के लिए वह एक आदमी रखना व्यर्थ समझती है। यह काम तो वह ग्राहकों से यों ही करा लेती थी। उसे रमा का रहना खलता था; पर वह इतना नम्र, इतना सेवा-तत्पर, इतना धर्मनिष्ठ है कि वह स्पष्ट रूप से कोई आपत्ति नहीं कर सकती। हाँ, दूसरों पर रखकर, श्लेष रूप से उसे सुना सुनाकर दिल का गुबार निकालती रहती है। रमा ने अपने को ब्राह्मण कह रखा है और उसी धर्म का पालन करता है। ब्राह्मरण और धर्मनिष्ठ बनकर वह दोनों प्राणियों का श्रद्धा-पात्र बन सकता है। बुड़िया के भाव और व्यवहार को वह खूब समझता है; पर करे क्या ? बेहयाई करने पर मजबूर है ! परिस्थिति ने उसके आत्म-सम्मान का अपहरण कर डाला है।

एक दिन रमानाथ वाचनालय में बैठा हुआ पत्र पढ़ रहा था, कि एका-एक उसे रतन दिखायी पड़ गयी। उसके अन्दाज़ से मालूम होता था कि वह किसी को खोज रही है। बीसों आदमी बैठे पुस्तकें और पत्र पढ़ रहे थे। रमा की छाती धक-धक करने लगी। वह रतन की आँखें बचाकर सिरझुकाये हुए कमरे से निकल गया और पीछे के अंधेरे बरामदे में, जहाँ पुराने टूटे-फूटे सन्दूक और कुर्सियाँ पड़ी हुई थी, छिपा खड़ा रहा। रतन से मिलने और घर के समाचार पूछने के लिये उसकी आत्मा तड़प रही थी; पर मारे संकोच के सामने न आ सकता था। आह ! कितनी बातें पूछने की थी ! पर उनमें मुख्य यही थी कि जालपा के विचार उसके विषय में क्या हैं। उसको निष्ठुरता पर रोती तो नहीं है ? उसकी उद्दंडता पर क्षुब्ध तो नहीं है ? उसे धूर्त और बेईमान तो नहीं समझ रही है ? दुबली तो नहीं हो गयी है? और लोगों के क्या भाव है ? क्या घर की तलाशी हुई ? मुकदमा चला ? ऐसी हजारों बातें जानने के लिए वह विकल हो रहा था; पर मुँह कैसे दिखाये ? वह झाँक-झाँक कर देखता रहा। जब रतन चली गयी—

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